ब्लैकबोर्ड-गोलीबारी हुई तो छिपने के लिए बंकर नहींं मिला: यहां से पाकिस्तान केवल दो किलोमीटर दूर, घायलों को अस्पताल तक नहीं मिला h3>
‘उस रात अचानक पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी शुरू हो गई। हमारे गांव में तो जान बचाने के लिए बंकर तक नहीं है। सब कहने लगे भागकर नीचे चलो। मैं घर से निकलकर नीचे की तरफ भागने लगी तो गिर पड़ी। मेरा पैर दो जगह से फ्रैक्चर हो गया। पूरी रात दर्द से कराहती रही
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ये कहते ही राजौरी के सरकारी अस्पताल में भर्ती जाहिदा की आंखों से आंसू बहने लगे।
ब्लैकबोर्ड में इस बार कहानी जम्मू-कश्मीर में भारत-पाकिस्तान सीमा पर बसे ऐसे गांव की जहां पर बुनियादी सुविधाएं जैसे बंकर, सड़कें और अस्पताल तक नहीं हैं
जाहिदा बेगम के पैर में प्लास्टर और हाथ में कैनुला लगा है। आंसू पोंछते हुए वो कहती हैं, ‘जब गोलीबारी शुरू हुई तो सब लोग घर छोड़कर भाग गए। जिस दिन मुझे चोट लगी उस दिन अस्पताल पहुंचाने वाला भी कोई नहीं था। हमारे टंडवाल गांव में कोई अस्पताल नहीं है। बस छोटे-छोटे क्लिनिक हैं। वहां कोई गाड़ी भी नहीं थी कि अस्पताल आ पाती।’
जाहिदा पिछले 20 दिनों से राजौरी के सरकारी अस्पताल में भर्ती हैं।
गहरी सांस लेकर जाहिदा कहती हैं, ‘मैं अस्पताल में पड़ी हूं। चल भी नहीं सकती। डॉक्टर ने 2 महीने रेस्ट करने के लिए कहा है। पति मजदूरी करते हैं। मेरे तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। इस घटना के बाद से वो बहुत डरे हुए हैं। मेरे पीछे उन्हें देखने वाला कोई नहीं है। वो मुझसे बार- बार यहां से घर चलने के लिए कहते हैं। अभी जो हुआ सो हुआ, लेकिन अब तो हमारे गांव में बंकर बनने ही चाहिए ताकि आगे गोलीबारी हो तो हम बच सकें।’
इसी अस्पताल में मेरी मुलाकात नूर से हुई थी। करीब 10 साल की नूर बेड पर लेटी हुई लगातार अपने टेडी की ओर देख रही थी। नूर कभी देखकर मुस्कुराती तो कभी गंभीर हो जाती। पाकिस्तान की ओर से हुई गोलीबारी में नूर के दोनों पैर में गंभीर चोट आई है। वो पिछले 20 दिनों से अस्पताल में भर्ती है और घाव भरने में कम से कम दो महीने का टाइम लगेगा।
नूर के भाई मुख्तार बताते हैं, ‘हम बहन के इलाज के लिए पुंछ से राजौरी आए हैं। नूर को बाथरूम तक भी गोद में उठाकर ले जाना पड़ता है। अगर हमारे पास छिपने के लिए बंकर होता तो मेरी बहन को कुछ नहीं होता। सात तारीख को पाकिस्तान से जो गोलीबारी हुई, उसमें मेरा घर बर्बाद हो गया। जब बहन घायल हुई तो हम उसे अस्पताल तक नहीं ले जा पाए। हमारे गांव में अस्पताल तक नहीं है। उसी गोलीबारी में मेरी चाची की मौत हो गई।’
राजौरी के अस्पताल में भर्ती 10 साल की नूर।
राजौरी के सरकारी अस्पताल में इनसे मिलने के बाद मैं बॉर्डर पर बसे लोगों की परेशानी जानने सिमटी गांव के लिए निकल पड़ी। सिमटी जाने के लिए पहले चलास जाना पड़ता है। चलास पंचायत के अंदर ही सिमटी गांव है। इस गांव तक पहुंचने में थोड़ी दिक्कत जरूर हुई क्योंकि गांव को मेन रोड से जोड़ने के लिए पक्की सड़क तक नहीं है। रास्ता जोखिम भरा है और जगह-जगह आग भी लगी हुई है।
चलास गांव से पाकिस्तान की दूरी महज 10 किलोमीटर है। मैं जिस पहाड़ पर खड़ी हूं, वहां से ठीक सामने वाले पहाड़ के पीछे पाकिस्तान है। ऐसे में सामने से हुई गोलीबारी यहां खड़े लोगों को आराम से निशाना बना सकती है। पाकिस्तान ने किया भी वही था। भारतीय सेना के ऑपरेशन सिंदूर के आगाज के बाद पाकिस्तान ने बॉर्डर से सटे सभी इलाकों पर गोलीबारी शुरू कर दी थी।
करीब पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद मैं सिमटी गांव पहुंची। गांव के सरपंच ने सिमटी तक जाने से साफ मना कर दिया था क्योंकि वहां पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं थी। बड़ी मुश्किल से वो साथ चलने के लिए राजी हुए। हम सिमटी पहुंचे थे। सिमटी वार्ड चलास का आखिरी गांव है और यहां से पाकिस्तान महज दो किलोमीटर की दूरी पर है।
इस गांव में 85 घर हैं और मुश्किल से 10 बंकर हैं। यहां पहुंचने से पहले रास्ते में मैंने तकरीबन 11 ऐसे गड्ढे देखे जो बम गिरने की वजह से हुए थे। उबड़-खाबड़ जमीन और पथरीले रास्तों से होकर मैं एक घर के सामने रुकी। ये नजीर का घर है। टूटे घर के अंदर देखा तो दीवारों पर गोलीबारी के निशान थे, जमीन पर मलबा बिखरा हुआ था। टूटी छत से पंखा लटक रहा था। घरवालों की आंखों में बेबसी के आंसू थे।
छत की ओर इशारा करते हुए नजीर कहते हैं, ‘एक गोला आया और सीधा मेरे घर पर गिरा। इसके बाद छत गिर गई, दीवार टूट गई, सबकुछ तबाह हो गया। मेरी पांच भेड़-बकरियां मर गईं। इनमें तो चार के हाड़-मांस का भी पता नहीं चला। हम लोग बंकर में छुपे थे, जो बस नाम के लिए बंकर है। मेरा घर 3 मंजिल का था जो पूरी तरह बर्बाद हो गया। मेरा लगभग 50 लाख का नुकसान हो गया। मेरा गांव पाकिस्तान बॉर्डर के सबसे ज्यादा करीब है इसलिए शायद हमारा नुकसान ज्यादा हुआ।’
नजीर भावुक होकर कहते हैं, ‘सरकार बस मकान बनाने में हमारी मदद कर दे। पांच साल पहले ही घर बनाया था। आज हम बेघर हो गए। इन्हीं टूटी-फूटी दीवारों के बीच रहने को मजबूर हूं, क्योंकि दोबारा घर बनाने के लिए पैसा नहीं है। हमारे गांव तक आने के लिए सड़क भी नहीं है। अस्पताल भी यहां से कई किलोमीटर दूर है। हमारे ग्राम पंचायत में कोई अस्पताल नहीं है। यहां गाड़ी नहीं चलती जब किसी को चोट लगती है तो राजौरी लेकर जाना पड़ता है।’
नजीर आगे कहते हैं, ‘हम लोग बंकर में छिपे थे, लेकिन वहां भी डर लग रहा था, क्योंकि वो जमीन के ऊपर बने हैं और मजबूत भी नहीं हैं। किस्मत अच्छी थी कि किसी भी बंकर पर बम नहीं गिरा वरना हम तो जिंदा नहीं बचते। हमारे गांव में 70 घर हैं, लेकिन छिपने के लिए पर्याप्त बंकर नहीं है। बंकर इतना बड़ा तो होना चाहिए कि कम से कम 20 लोग उसके अंदर आ जाएं, अभी तो 6-7 लोग ही रह सकते हैं। बंकर जमीन के नीचे होना चाहिए, जिसके ऊपर कम से कम 4 फीट मिट्टी होनी चाहिए ताकि बम गिरने पर भी नुकसान न पहुंचे।’
नजीर की बीवी रुखसार कहती हैं, ‘हमने तो अपनी आंखों से पाकिस्तान से इधर गोला आते देखा। गोला गिरने पर बहुत तेज आवाज हो रही थी। हमारे बच्चे बहुत ही घबरा गए थे। वो लगातार रो रहे थे। मैं बहुत बेचैन हो गई थी। अल्लाह से दुआ कर रही थी कि कैसे भी हमें बचा लो। जान तो बच गई, लेकिन हमारा सब कुछ खत्म हो गया।’
रुखसार दीवारें दिखाते हुए कहती हैं कि गोलीबारी में हमारा घर तबाह हो गया।
रुखसार भावुक होकर बच्चों की तरफ देखते हुए कहती हैं, ‘हम वैसे ही बहुत मुसीबत में यहां जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं। अगर कोई जख्मी हो जाता है तो मेन रोड तक ही उसे ले जाने में 6-7 घंटे का टाइम लगता है। फिर वहां से अस्पताल तक जाने में और ज्यादा टाइम लगता है। यहां आसानी से गाड़ी नहीं मिलती। हमें सुरक्षा के लिए बंकर चाहिए। साथ ही आने-जाने के लिए रोड और इलाज के लिए अस्पताल भी।’
इसी गांव की एक बुजुर्ग सलमा बताती हैं, ‘इतनी भयानक गोलीबारी कभी नहीं हुई। जैसी मुसीबत हमने देखी, वो दोबारा देखने को न मिले, दिन-रात यही मनाते हैं। हमें खुद को बचाने के लिए बंकर चाहिए और यहां एक अस्पताल भी होना चाहिए।’
कुछ याद करते हुए उदास होकर सलमा कहती हैं, ‘जब भी किसी बच्चे को देखती हूं तो मुझे अपने पोते की याद आती है। उसे सांप ने काट लिया था और जब तक हम उसे लेकर अस्पताल पहुंचे, उसकी मौत हो चुकी थी। एक तो सड़क नहीं और अस्पताल भी राजौरी में हैं। ऐसे में मरीज को टाइम पर इलाज नहीं मिलता और वो मर जाता है। अस्पताल तो छोड़िए, यहां तो दवाई तक नहीं मिलती है।’
सलमा कहती हैं पोते को समय पर इलाज नहीं मिला इसलिए उसकी मौत हो गई। हमारे गांव में अस्पताल तक नहीं है।
चलास पंचायत के सरपंच मुश्ताक अहमद कहते हैं, ‘हमारा गांव हिंदुस्तान के इस इलाके का आखिरी गांव है जिसका बॉर्डर पाकिस्तान से लगता है। पाकिस्तान ने पहली बार इतनी तेज गोलीबारी की है। हमारे गांव के कई लोगों को नुकसान पहुंचा।
कई लोगों के मवेशी भी मारे गए। हमारे बचाव के लिए जो बंकर यहां बने हैं वो किसी आम घर के जैसे ही हैं। बुलेटप्रुफ भी नहीं हैं। मैं आर्मी से रिटायर हूं और ये बता सकता हूं कि अभी जो बंकर की दीवार है उससे एके47 की गोली भी आर-पार हो जाएगी। बम गिरने पर क्या होगा, ये तो आप सोच भी नहीं सकते।’
मुश्ताक अहमद आगे कहते हैं, ‘पक्के बंकर की दीवार डेढ़ से दो फुट चौड़ी होनी चाहिए और छत कम से कम तीन फीट मोटी होनी चाहिए। उसके ऊपर भी तीन फीट मिट्टी की परत होनी चाहिए। इसके अलावा बंकर जमीन के अंदर होना चाहिए, जमीन से ऊपर नहीं। खानापूर्ति वाले बंकरों की जगह पक्के बंकर बनने चाहिए। ये पहली बार है जब हमने इतनी खतरनाक गोलीबारी देखी है। भारतीय फौज ने हमारी बहुत मदद की है, हम भी उनके साथ हमेशा खड़े हैं।’
मुश्ताक अहमद कहते हैं, ‘हमारे यहां एक छोटा सा हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर है जहां बस बुखार या सिरदर्द की दवाई ही मिलती है। कोई एम्बुलेंस भी नहीं है। लोग इलाज करवाने के लिए यहां से 40 किलोमीटर दूर राजौरी के सरकारी अस्पताल जाते हैं। कई बार तो लोग अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। सरकार हमारी अवाम के लिए कुछ बेसिक सुविधाएं मुहैया करवा दे तो हमारी जिंदगी शांति में गुजरेगी।’
चलास गांव में जमीन के ऊपर बने बंकर।
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