पवन के. वर्मा का कॉलम: कानून के राज को बहाल करना सत्ता की जिम्मेदारी h3>
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2 घंटे पहले
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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
संविधान की सर्वोच्चता और सर्वोच्च न्यायालय की महत्ता तब बहुत कम मायने रखने लगती है, जब शक्ति-प्रदर्शन ही सत्ता की प्रणाली हो और कानून के राज को एक वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में देखा जाने लगे। जिस तरह से राजनेता और राजनीतिक दल संविधान में निहित सिद्धांतों और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना कर रहे हैं, उससे देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के सामने सवालिया निशान लगने लगे हैं।
बुलडोजर-न्याय इसी का प्रतीक है। इसका उद्देश्य तो स्पष्ट है : भय पैदा करने और अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य की शक्ति का अवैध रूप से उपयोग करना। इसके निशाने पर अमूमन गरीब, अल्पसंख्यक और असहमत लोग होते हैं।
चाहे महाराष्ट्र या यूपी हो, या एमपी या दिल्ली- बुलडोजर से किए जाने वाले ज्यादातर विध्वंस बिना उचित प्रक्रिया के, बिना नोटिस दिए और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किए बिना होते हैं। इसमें निष्पक्ष सुनवाई का अवसर और दोषी सिद्ध होने तक किसी को निर्दोष मानने का सिद्धांत भी शामिल है, जो हमारी न्याय-व्यवस्था का आधार है।
औरंगजेब पर नागपुर में भड़की साम्प्रदायिक हिंसा के बाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के बुलडोजर भी हरकत में आ गए, भले ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाई थी। प्रशासन ने दावा किया कि वह दंगा भड़काने के आरोपियों पर कानून का शासन लागू कर रहा था। जबकि यह बुलडोजर-न्याय का एक और उदाहरण था।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रयागराज में नोटिस के 24 घंटे के भीतर की गई तोड़फोड़ ने ‘हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया।’ वीडियो फुटेज में एक स्कूली छात्रा को विध्वंस से अपनी किताबें बचाते देखा गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी कई टिप्पणियों और फैसलों में लक्ष्मण-रेखा खींचने के प्रयास किए हैं।
दिल्ली नगर निगम बनाम उमर खालिद और अन्य (2023) मामले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि तोड़फोड़ को प्रतिशोध के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने जोर देते हुए कहा कि उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना घरों को ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर का उपयोग न केवल असंवैधानिक, बल्कि असभ्यतापूर्ण भी है।
न्यायालय ने दोहराया कि भले ही निर्माण अवैध हों, उन पर कार्रवाई करते समय उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। लोगों को बेघर करने से पहले नोटिस दिया जाना चाहिए, सुनवाई की जानी चाहिए और वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किया जाना चाहिए।
बेंच ने कुछ समूहों को टारगेट करने के लिए कानूनों काे हथियार की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ भी चेताया और इसे संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन बताया।
जब राज्यसत्ता किसी दंड के भय से मुक्त होकर गैरकानूनी और प्रतिशोधात्मक तरीके अख्तियार करती है, तो इससे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी कानून को हाथ में लेने की प्रेरणा मिलती है। हाल ही में मुंबई में शिंदे गुट के शिवसैनिकों ने स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ उत्पात मचाया और जिस स्टूडियो में उन्होंने अपना कार्यक्रम रिकॉर्ड किया था, उसमें तोड़फोड़ की।
हालांकि बाद में कुछ अपराधियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए, लेकिन भीड़ से जो छूट गया था, उसे राज्य सरकार के बुलडोजरों ने पूरा कर दिया। लगता है हमारे राजनेताओं ने कानूनसम्मत आचरण के साथ-साथ सेंस ऑफ ह्यूमर भी खो दिया है।
यह दु:खद है, क्योंकि आलोचना, असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा गारंटीशुदा हैं। जो राज्यसत्ता के दबंगईपूर्ण तौर-तरीकों का समर्थन करते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि अनियंत्रित राज्यसत्ता किसी को भी अपना अगला शिकार बना सकती है- उन्हें भी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
सुप्रीम कोर्ट को उन लोगों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए, जिन्होंने उसके स्पष्ट निर्देशों का मखौल उड़ाया है। साथ ही उन्हें न्यायालय की अवमानना के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए। जब तक कि अदालत के आदेश और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों को कठोर सजा नहीं दी जाती, तब तक सत्ता के दुरुपयोग का दौर जारी रहेगा।
बुलडोजर एक मशीन है; उसका अपना कोई विवेक नहीं होता। लेकिन उसे चलाने वालों के पास जरूर अपना विवेक होना चाहिए। भारत का संविधान कमजोरों को ताकतवरों के अत्याचार से बचाने के लिए बनाया गया था। अगर सरकार खुद ही उत्पीड़न का साधन बन जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा कैसे बच सकेगी?
बुलडोजर एक मशीन है; उसका अपना कोई विवेक नहीं होता। लेकिन उसे चलाने वालों के पास जरूर अपना विवेक होना चाहिए। भारत का संविधान कमजोरों को ताकतवरों के अत्याचार से बचाने के लिए ही बनाया गया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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पवन के. वर्मा पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक
संविधान की सर्वोच्चता और सर्वोच्च न्यायालय की महत्ता तब बहुत कम मायने रखने लगती है, जब शक्ति-प्रदर्शन ही सत्ता की प्रणाली हो और कानून के राज को एक वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में देखा जाने लगे। जिस तरह से राजनेता और राजनीतिक दल संविधान में निहित सिद्धांतों और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना कर रहे हैं, उससे देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के सामने सवालिया निशान लगने लगे हैं।
बुलडोजर-न्याय इसी का प्रतीक है। इसका उद्देश्य तो स्पष्ट है : भय पैदा करने और अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य की शक्ति का अवैध रूप से उपयोग करना। इसके निशाने पर अमूमन गरीब, अल्पसंख्यक और असहमत लोग होते हैं।
चाहे महाराष्ट्र या यूपी हो, या एमपी या दिल्ली- बुलडोजर से किए जाने वाले ज्यादातर विध्वंस बिना उचित प्रक्रिया के, बिना नोटिस दिए और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किए बिना होते हैं। इसमें निष्पक्ष सुनवाई का अवसर और दोषी सिद्ध होने तक किसी को निर्दोष मानने का सिद्धांत भी शामिल है, जो हमारी न्याय-व्यवस्था का आधार है।
औरंगजेब पर नागपुर में भड़की साम्प्रदायिक हिंसा के बाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के बुलडोजर भी हरकत में आ गए, भले ही बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगाई थी। प्रशासन ने दावा किया कि वह दंगा भड़काने के आरोपियों पर कानून का शासन लागू कर रहा था। जबकि यह बुलडोजर-न्याय का एक और उदाहरण था।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रयागराज में नोटिस के 24 घंटे के भीतर की गई तोड़फोड़ ने ‘हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया।’ वीडियो फुटेज में एक स्कूली छात्रा को विध्वंस से अपनी किताबें बचाते देखा गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी कई टिप्पणियों और फैसलों में लक्ष्मण-रेखा खींचने के प्रयास किए हैं।
दिल्ली नगर निगम बनाम उमर खालिद और अन्य (2023) मामले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि तोड़फोड़ को प्रतिशोध के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने जोर देते हुए कहा कि उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना घरों को ध्वस्त करने के लिए बुलडोजर का उपयोग न केवल असंवैधानिक, बल्कि असभ्यतापूर्ण भी है।
न्यायालय ने दोहराया कि भले ही निर्माण अवैध हों, उन पर कार्रवाई करते समय उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए। लोगों को बेघर करने से पहले नोटिस दिया जाना चाहिए, सुनवाई की जानी चाहिए और वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किया जाना चाहिए।
बेंच ने कुछ समूहों को टारगेट करने के लिए कानूनों काे हथियार की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ भी चेताया और इसे संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन बताया।
जब राज्यसत्ता किसी दंड के भय से मुक्त होकर गैरकानूनी और प्रतिशोधात्मक तरीके अख्तियार करती है, तो इससे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी कानून को हाथ में लेने की प्रेरणा मिलती है। हाल ही में मुंबई में शिंदे गुट के शिवसैनिकों ने स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ उत्पात मचाया और जिस स्टूडियो में उन्होंने अपना कार्यक्रम रिकॉर्ड किया था, उसमें तोड़फोड़ की।
हालांकि बाद में कुछ अपराधियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए, लेकिन भीड़ से जो छूट गया था, उसे राज्य सरकार के बुलडोजरों ने पूरा कर दिया। लगता है हमारे राजनेताओं ने कानूनसम्मत आचरण के साथ-साथ सेंस ऑफ ह्यूमर भी खो दिया है।
यह दु:खद है, क्योंकि आलोचना, असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा गारंटीशुदा हैं। जो राज्यसत्ता के दबंगईपूर्ण तौर-तरीकों का समर्थन करते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि अनियंत्रित राज्यसत्ता किसी को भी अपना अगला शिकार बना सकती है- उन्हें भी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
सुप्रीम कोर्ट को उन लोगों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए, जिन्होंने उसके स्पष्ट निर्देशों का मखौल उड़ाया है। साथ ही उन्हें न्यायालय की अवमानना के लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए। जब तक कि अदालत के आदेश और संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करने वालों को कठोर सजा नहीं दी जाती, तब तक सत्ता के दुरुपयोग का दौर जारी रहेगा।
बुलडोजर एक मशीन है; उसका अपना कोई विवेक नहीं होता। लेकिन उसे चलाने वालों के पास जरूर अपना विवेक होना चाहिए। भारत का संविधान कमजोरों को ताकतवरों के अत्याचार से बचाने के लिए बनाया गया था। अगर सरकार खुद ही उत्पीड़न का साधन बन जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा कैसे बच सकेगी?
बुलडोजर एक मशीन है; उसका अपना कोई विवेक नहीं होता। लेकिन उसे चलाने वालों के पास जरूर अपना विवेक होना चाहिए। भारत का संविधान कमजोरों को ताकतवरों के अत्याचार से बचाने के लिए ही बनाया गया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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