नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति | Sharir Hi Brahmand Podcast 16 Dec 2023 Gulab Kothari Article | News 4 Social

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नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति | Sharir Hi Brahmand Podcast 16 Dec 2023 Gulab Kothari Article | News 4 Social

नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति | Sharir Hi Brahmand Podcast 16 Dec 2023 Gulab Kothari Article | News 4 Social

जयपुरPublished: Dec 17, 2023 10:17:38 pm

Gulab Kothari Article Sharir Hi Brahmand: ‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ शृंखला में पढ़ें पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति

नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति

नैष्कर्म्यता ही ब्राह्मी स्थिति

गीता को ब्रह्म-कर्म का शास्त्र कहते हैं। दोनों मिलकर जीवात्मा ही हैं। कर्म का आधार कामना है। फल से पुनर्जन्म होता है। जीव का मार्ग गुड़ते-गुड़ते महादेव हो जाने जैसा है। जीव ब्रह्म का अंश है, ब्रह्म के सभी गुण धारण किए रहता है। पिता वै जायते पुत्र:। न ब्रह्म कभी नष्ट होता है, न ही जीव के भीतर का आत्मा।
सृष्टि स्थूल भाव में दिखाई देती है। इसकी निश्चित अवधि भी होती है। जीव कर्मों के अनुरूप चौरासी लाख स्थूल-सूक्ष्म शरीरों में बदलता रहता है, मरता नहीं है। इसका अर्थ है सृष्टि कर्म से चलती है। कर्म के फलस्वरूप ही योनियां मिलती जाती हैं। अत: इस चक्र से बाहर निकलने का मार्ग भी कर्म में छिपा है। इस मार्ग को पहचानने, समझने एवं इसका उपयोग करने में समय लगता है, बुद्धि लगती है, ज्ञानाभिव्यक्ति होनी चाहिए। स्वतन्त्र निर्णय और कर्म करने की क्षमता भी होनी चाहिए। अत: मानव को ये सारे साधन उपलब्ध हैं। जीव ब्रह्म भाव को कैसे प्राप्त कर सकता है इस बात को समझाते हुए कृष्ण कह रहे है कि-
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।। (गीता 18.51)
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:।। (गीता 18.52)
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। (गीता 18.53)
अर्थात्- विशुद्ध बुद्धि से युक्त धृति से आत्मसंयम कर शब्दादि विषयों को त्याग कर और राग-द्वेष का परित्याग कर, विविक्तसेवी (एकान्त सेवन करने वाला) लघ्वाशी (मिताहारी) जिसने अपने शरीर वाणी और मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव तत्पर तथा वैराग्य पर समाश्रित, अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।
कृष्ण यहां बता रहे हैं कि ज्ञानयोगी नैष्कर्म्य द्वारा ब्रह्म को प्राप्त हो सकता है। इसके लिए जीवनचर्या के पारिभाषिक शब्द दिए हैं जिनका आध्यात्मिक अर्थ समझाया गया है। ज्ञानयोग नैष्कर्म्य सिद्धि है। यह निष्काम कर्मयोग भी है तथा बिना क्रिया के भाव योग से सिद्धि भी है। कर्म शरीर-मन-बुद्धि से होता है। इनसे जब कर्म पैदा नहीं होता तब नैष्कर्म्य सिद्धि होती है।
योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी की आध्यात्मिक दीपिका में कुछ शब्दार्थ दिए हैं। विशुद्ध बुद्धि– यहां आत्मा के प्रति गहन श्रद्धा हो, आत्मा के सिवाय अन्य कुछ भासित न हो। धृति– चंचल मन को स्थिर अवस्था में प्रतिष्ठित करना। यह कार्य प्राणायाम के द्वारा, मन की वृत्तियों को अवरुद्ध करके किया जाता है। मन के साथ बुद्धि भी आत्मा में स्थिर हो जाती है। विषय त्याग– योगाभ्यास से इन्द्रिय निग्रह करना। बाहरी विषयों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना। किसी वस्तु के प्रति राग/विराग का न होना मन की स्थिरता में सहायक है। यही राग-द्वेष त्याग है। विविक्त सेवी– निर्जन स्थान और एकान्तवासी होना मन की स्थिरता के लिए आवश्यक है। इससे सभी प्रकार के संयम-मर्यादा का पालन भी सहज हो जाता है। अनावश्यक विषयों में भटकाव नहीं रहता। व्यक्ति स्वयं में स्थिर रह सकता है। प्राण स्थिर रहते हैं। तब भीतर-बाहर शान्त रहता है। यही असंग अवस्था है।
मिताहारी होना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो उत्तम है ही, निद्रा-आलस्य जैसी तामसिक वृत्तियों से भी व्यक्ति को मुक्त रखता है। इसी को कबीर ने आत्माराम का, रसायन-सेवन का मार्ग बताया है। मन-वचन-काया का संयम सभी धर्मों ने अनिवार्य कहा है। शरीर को पशुभाव माना है। शरीर चूंकि पृथ्वी से निर्मित होता है और पृथ्वी के प्राण वेद विज्ञान में पशु कहे जाते हैं। अत: पृथ्वी पर स्थित सभी पार्थिव प्राणी पशु हैं। क्षणमात्र में इसमें कुछ भी परिवर्तन हो सकते हैं। मन-वचन-काया के संयम निरन्तर अभ्यास से ही संभव हैं। इससे शक्ति का संचय भी बना रहता है। योग-ध्यान-प्राणायाम से मन में उठने वाले प्रत्ययों को रोका जा सकता है। एकाग्रता बढ़ती है। जब मन में एकमात्र ब्रह्म की इच्छा रह जाती है, वही वैराग्य है। गीता में वैराग्य तीन अर्थों में स्पष्ट किया हैं- कर्मत्याग, परिग्रह त्याग तथा आसक्ति त्याग। ये तीनों त्याग ही सहज भाव में होने आवश्यक हैं। जिस प्रकार ईश्वर साक्षीभाव में सब जगह स्थित रहता हुआ भी कहीं लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार लोक संग्रह के लिए प्रवृत्ति रहने पर भी उनमें आसक्ति का न होना ही सहज परित्याग हैं। यह सहज त्याग की स्थिति निष्काम भाव या ब्राह्मी स्थिति के कारण आती है। कृष्ण कहते हैं कि ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर पुरुष कभी मोहित नहीं होता और वह ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है-
एषा ब्राह्मी स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।। (गीता 2.72)
अहंकार के रहते किसी अन्य शत्रु की आवश्यकता नहीं पड़ती। अहंंकार का दायरा भी बहुत बड़ा है। जीवन के प्रत्येक आयाम के साथ अहंकार का सम्बन्ध है। शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा के सबके अपने-अपने अहंकार होते हैं। इनमें भी कई प्रकार हैं। ज्ञान का अहंकार बहुत बड़ा है। रावण इसका उदाहरण है। यह एक प्रकार की मिथ्या दृष्टि पर आधारित है। शरीर में प्रवाहित स्थूल ज्ञान को ही व्यक्ति आत्मज्ञान मान लेता है। यही अहंकार का मूल स्वरूप है। अहंकार में विशेष प्रकार की आक्रामकता रहती है। मिथ्या श्रेष्ठता का भाव बना रहता है। अत: व्यवहार में शनै:शनै: अकेला पड़ जाता है। व्यक्ति काम-राग-द्वेष आदि में भी अपने सामर्थ्य का उपयोग करता है। सामर्थ्य ही बल है। अहंकार और बल साथ हो जाने पर मर्यादा, चाहे धर्म ही की क्यों न हो- का अतिक्रमण करने लगता है। दूसरों के प्रति तुच्छता का भाव ही गिरावट की सूचना देने वाला है।
काम-क्रोध-लोभ को तो कृष्ण ने ही नरक के द्वार कहा है। चित्त की अशुद्धि से भौतिक पदार्थों के प्रति लालसा-वासना-कामना ही काम है। कामनापूर्ति में प्रतिघात ही क्रोध है।
सङ्गात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। (गीता 2.62)
राग या आसक्ति ही चंचलता का कारण भी है और द्वेष का भी। राग शब्द में ‘रा’ और ‘ग’ दो अक्षर हैं। ‘रा’ का अर्थ ‘दान’ तथा ‘ग’ का अर्थ है ‘गति’। इन दोनों व्यापारों की समन्वित अवस्था ही राग हैं। यह दो वस्तुओं को आधार बनाकर ही प्रवृत्त होता है। द्वेष इसके ठीक विपरीत भाव को कहता है। निरुक्तकार के अनुसार द्वेष में दुर-एषा ये दो विभाग हैं। दुष्ट इच्छा, विपरीत इच्छा या विपरीत विषयासक्ति ही द्वेष है। राग में यदि आत्मसमर्पण करते हुए विषय के योग हैं तो द्वेष में विषय से हटते हुए विषय के साथ योग है। मन और इन्द्रिय संयम का अभाव, फल की कामना ही मन में एक प्रकार का लगाव-चिपकन पैदा करते हैं। यह लगाव या आकर्षण ही पुनर्वृत्तियों का कारण बन जाता है। इसके लिए अपरिग्रह का मार्ग श्रेष्ठ कहा गया है। अर्थात् अनावश्यक विषयों- पदार्थों का त्याग सभी धर्मों में श्रेष्ठ कहा है। जीवन में क्लेशों का प्रवेश परिग्रह से ही होता है। भले ही धर्म के नाम पर ही क्यों न हो। परिग्रह भी मिथ्या दृष्टि-लोभ-श्रेष्ठता के भाव का ही परिणाम है। शास्त्र कहते हैं कि शरीर धारण तक परिग्रह उचित है। यह संन्यास भाव है। त्याग का भाव भी है, किन्तु त्याग में भी अहंकार नहीं होना चाहिए कि ‘मैंने’ इसका त्याग कर दिया। अत: त्याग सहज और मन से होना चाहिए। त्याग करने पर हर्ष या शोक भी नहीं रहना चाहिए। विषय के साथ ममत्व छूट जाए। तब ही तो मन शान्त रह पाएगा। स्थिरता टिकाऊ होगी। अपने-पराए का भाव छूटेगा। यही ब्रह्म भाव की प्राप्ति है। किसी प्रकार का खेद, सन्ताप न रहे, न कोई आकांक्षा। यही उपरति (ब्रह्मभाव) कहलाती है।

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