डॉ. सुशीला नैयर: गांधीजी की सहयोगी, झांसी की सांसद और स्वास्थ्य मंत्री | Dr. Sushila Nayyar A Visionary Leader for Jhansi | News 4 Social

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डॉ. सुशीला नैयर: गांधीजी की सहयोगी, झांसी की सांसद और स्वास्थ्य मंत्री | Dr. Sushila Nayyar A Visionary Leader for Jhansi | News 4 Social


डॉ. सुशीला नैयर: गांधीजी की सहयोगी, झांसी की सांसद और स्वास्थ्य मंत्री | Dr. Sushila Nayyar A Visionary Leader for Jhansi | News 4 Social

1957 में चुनाव लड़ने का मौका मिला 26 दिसंबर 1914 को पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) के कुंजाह शहर में जन्मीं डॉक्टर सुशीला नैयर ने लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और एमडी की शिक्षा ग्रहण की थी। वर्धा में फैले हैजा के दौरान उन्होंने अकेले ही लोगों की सेवा की, जिससे वह सुर्खियों में आ गई। वह वर्ष 1952 में पहली बार दिल्ली विधानसभा से चुनाव जीतीं और विधानसभा अध्यक्ष रहीं। वर्ष 1957 में उन्हें झांसी लोकसभा क्षेत्र से सांसद का चुनाव लड़ने का मौका मिला।

केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया जिसमें उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चंदन सिंह को पराजित किया। वह वर्ष 1962 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पन्नालाल और वर्ष 1967 में भारतीय जनसंघ के रमानाथ खैरा को हराकर सांसद चुनी गईं। उन्हें केंद्र में स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी से अनबन के कारण उन्होंने दूसरे गुट कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस (इंदिरा) के डॉक्टर गोविंद दास रिछारिया से हार गईं। डॉक्टर नैयर ने वर्ष 1977 के चुनाव में फिर वापसी की और जनता पार्टी समर्थित भारतीय क्रांति दल के टिकट पर जीतकर चौथी बार सांसद बनीं। वर्ष 1980 में वह तीसरे और 1984-85 में चौथे स्थान पर रहीं। इन चुनावों में भी उन्होंने जनता पार्टी प्रत्याशी के रूप में किस्मत आजमाई थी। इसके बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया।

नामांकन के ठीक पहले आईं थीं झांसी डॉक्टर सुशीला नैयर का जब झांसी से पहली बार टिकट फाइनल हुआ, तो इसके पहले वह कभी झांसी नहीं आई थीं। राजनीति के जानकार बताते हैं कि नामांकन के ठीक पहले झांसी आई थीं और 2 हजार से ज्यादा लोग उन्हें रेलवे स्टेशन पर लेने पहुंचे थे। उनसे पहले सांसद रहे रघुनाथ धुलेकर खुद उन्हें लेने स्टेशन गए थे।

झांसी में लिखी थी विकास की गाथा डॉक्टर सुशीला नैयर ने सांसद रहते हुए झांसी में मेडिकल कॉलेज और बेतवा पुल बनवाया। उस समय उम्र में गिने-चुने ही मेडिकल कॉलेज थे, जबकि बुंदेलखंड में एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं था।