जोसेफ एस. नाय का कॉलम: अमेरिका के बदले हुए रवैए से तमाम देश प्रभावित होंगे h3>
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2 दिन पहले
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जोसेफ एस. नाय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमेरिटस
ट्रम्प ने विश्व-व्यवस्था के भविष्य पर गंभीर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिए हैं। अपने हाल के भाषणों और यूएन की वोटिंग में उनके प्रशासन ने रूस का पक्ष लिया है, जिसने अपने शांतिपूर्ण पड़ोसी यूक्रेन पर हमला बोला है। उनकी टैरिफ की धमकियों ने दीर्घकालिक गठबंधनों और वैश्विक व्यापार प्रणाली के भविष्य पर सवाल उठाए हैं।
वहीं पेरिस जलवायु समझौते और विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका के हटने से अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों पर सहयोग कम हुआ है। दुनिया से अलग-थलग और आत्म-केंद्रित अमेरिका दुनिया के लिए एक परेशान करने वाली बात होगी। ऐसे में रूस बलप्रयोग से यूरोप पर हावी होने की कोशिश करेगा।
यूरोप को एकता दिखानी होगी और अपनी रक्षा के लिए खुद को तैयार करना होगा, भले ही अमेरिका का समर्थन अब भी नाटो के लिए महत्वपूर्ण हो। दूसरी तरफ चीन भी अब एशिया में अपनी दादागिरी बढ़ा देगा। उसके पड़ोसियों को होशियार रहना होगा।
अमेरिका के इस रुख से सभी देश प्रभावित होंगे, क्योंकि दुनिया आपस में जुड़ी हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था देशों के बीच शक्ति के स्थिर-वितरण पर टिकी होती है। लेकिन अगर एक महाशक्ति की घरेलू राजनीति बहुत तेजी से बदलती है तो सब पर असर होता है।
आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली से पहले व्यवस्थाएं अक्सर ताकत के सिद्धांत से ही लागू की जाती थीं। शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच युद्ध और शांति के मानदंड भूगोल से तय होते थे। रोम और पार्थिया एक-दूसरे के समीप होने के कारण लड़ते थे, जबकि रोम, चीन और मेसोअमेरिकन साम्राज्यों में युद्ध नहीं होता था।
अतीत के साम्राज्य हार्ड और सॉफ्ट दोनों तरह की पॉवर पर निर्भर थे। चीनी साम्राज्य को उसकी मजबूत परंपराएं, विकसित राजनीतिक संस्थाएं और पारस्परिक आर्थिक लाभ जोड़कर रखते थे। रोम भी ऐसा ही था, खासकर रिपब्लिक में।
रोमनों के बाद के यूरोप में पोप और वंशवादी राजतंत्रों जैसी संस्थाएं थीं। क्षेत्रों में अकसर विवाह और पारिवारिक गठबंधनों के माध्यम से शासन बदल जाता था, चाहे लोगों की इच्छाएं कुछ भी हों। युद्ध अकसर वंशवादी विचारों से प्रेरित होते थे।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में प्रोटेस्टेंटवाद के उदय से बदलाव हुए। अठारहवीं शताब्दी के अंत में फ्रांसीसी क्रांति ने राजशाही मानदंडों को बाधित कर दिया, जो लंबे समय से यूरोपीय शक्ति संतुलन को बनाए रखे थे।
नेपोलियन की सेनाओं ने कई क्षेत्रीय सीमाओं को मिटा दिया और नए राज्यों का निर्माण किया, जिससे 1815 की वियना कांग्रेस में आधुनिक राज्य प्रणाली बनाने के लिए पहला प्रयास किया गया। 1848 की क्रांतियों और दोनों विश्वयुद्धों ने विश्व-व्यवस्था को नाटकीय रूप से बदल दिया। लेकिन युद्धोत्तर दुनिया को अमेरिका की सदी कहा गया और 1991 में शीतयुद्ध के समापन ने अमेरिका को दुनिया की एकछत्र ताकत बना दिया। इसी की मदद से अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट और पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट जैसी संस्थाएं रची थीं।
ट्रम्प की वापसी से पहले भी कुछ विश्लेषकों का माननाथा कि यह अमेरिकी व्यवस्था अब समाप्त हो रही है। इक्कीसवीं सदी ने शक्ति के वितरण में एक और बदलाव किया था, जिसे आमतौर पर एशिया के उत्थान के रूप में वर्णित किया जाता है।
एक समय एशिया विश्व-अर्थव्यवस्था का केंद्र था, लेकिन पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद यह पिछड़ गया। और अन्य क्षेत्रों की तरह इसे नए साम्राज्यवाद का सामना करना पड़ा, जिसे पश्चिमी सैन्य और संचार प्रौद्योगिकियों ने संभव बनाया था। अब एशिया वैश्विक आर्थिक उत्पादन के प्रमुख स्रोत के रूप में अपनी पहले की स्थिति में लौट रहा है।
हालांकि यह अमेरिका की तुलना में यूरोप की कीमत पर अधिक हुआ है। वैश्विक जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा अभी भी एक-चौथाई है। चीन ने अमेरिका की बढ़त को काफी हद तक कम कर दिया है, लेकिन यह आर्थिक और सैन्य रूप से या गठबंधनों के मामले में अमेरिका से आगे नहीं निकल पाया है। लेकिन क्या अब हम अमेरिकी पतन के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं? (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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जोसेफ एस. नाय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमेरिटस
ट्रम्प ने विश्व-व्यवस्था के भविष्य पर गंभीर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिए हैं। अपने हाल के भाषणों और यूएन की वोटिंग में उनके प्रशासन ने रूस का पक्ष लिया है, जिसने अपने शांतिपूर्ण पड़ोसी यूक्रेन पर हमला बोला है। उनकी टैरिफ की धमकियों ने दीर्घकालिक गठबंधनों और वैश्विक व्यापार प्रणाली के भविष्य पर सवाल उठाए हैं।
वहीं पेरिस जलवायु समझौते और विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका के हटने से अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों पर सहयोग कम हुआ है। दुनिया से अलग-थलग और आत्म-केंद्रित अमेरिका दुनिया के लिए एक परेशान करने वाली बात होगी। ऐसे में रूस बलप्रयोग से यूरोप पर हावी होने की कोशिश करेगा।
यूरोप को एकता दिखानी होगी और अपनी रक्षा के लिए खुद को तैयार करना होगा, भले ही अमेरिका का समर्थन अब भी नाटो के लिए महत्वपूर्ण हो। दूसरी तरफ चीन भी अब एशिया में अपनी दादागिरी बढ़ा देगा। उसके पड़ोसियों को होशियार रहना होगा।
अमेरिका के इस रुख से सभी देश प्रभावित होंगे, क्योंकि दुनिया आपस में जुड़ी हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था देशों के बीच शक्ति के स्थिर-वितरण पर टिकी होती है। लेकिन अगर एक महाशक्ति की घरेलू राजनीति बहुत तेजी से बदलती है तो सब पर असर होता है।
आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली से पहले व्यवस्थाएं अक्सर ताकत के सिद्धांत से ही लागू की जाती थीं। शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच युद्ध और शांति के मानदंड भूगोल से तय होते थे। रोम और पार्थिया एक-दूसरे के समीप होने के कारण लड़ते थे, जबकि रोम, चीन और मेसोअमेरिकन साम्राज्यों में युद्ध नहीं होता था।
अतीत के साम्राज्य हार्ड और सॉफ्ट दोनों तरह की पॉवर पर निर्भर थे। चीनी साम्राज्य को उसकी मजबूत परंपराएं, विकसित राजनीतिक संस्थाएं और पारस्परिक आर्थिक लाभ जोड़कर रखते थे। रोम भी ऐसा ही था, खासकर रिपब्लिक में।
रोमनों के बाद के यूरोप में पोप और वंशवादी राजतंत्रों जैसी संस्थाएं थीं। क्षेत्रों में अकसर विवाह और पारिवारिक गठबंधनों के माध्यम से शासन बदल जाता था, चाहे लोगों की इच्छाएं कुछ भी हों। युद्ध अकसर वंशवादी विचारों से प्रेरित होते थे।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में प्रोटेस्टेंटवाद के उदय से बदलाव हुए। अठारहवीं शताब्दी के अंत में फ्रांसीसी क्रांति ने राजशाही मानदंडों को बाधित कर दिया, जो लंबे समय से यूरोपीय शक्ति संतुलन को बनाए रखे थे।
नेपोलियन की सेनाओं ने कई क्षेत्रीय सीमाओं को मिटा दिया और नए राज्यों का निर्माण किया, जिससे 1815 की वियना कांग्रेस में आधुनिक राज्य प्रणाली बनाने के लिए पहला प्रयास किया गया। 1848 की क्रांतियों और दोनों विश्वयुद्धों ने विश्व-व्यवस्था को नाटकीय रूप से बदल दिया। लेकिन युद्धोत्तर दुनिया को अमेरिका की सदी कहा गया और 1991 में शीतयुद्ध के समापन ने अमेरिका को दुनिया की एकछत्र ताकत बना दिया। इसी की मदद से अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट और पेरिस क्लाइमेट एग्रीमेंट जैसी संस्थाएं रची थीं।
ट्रम्प की वापसी से पहले भी कुछ विश्लेषकों का माननाथा कि यह अमेरिकी व्यवस्था अब समाप्त हो रही है। इक्कीसवीं सदी ने शक्ति के वितरण में एक और बदलाव किया था, जिसे आमतौर पर एशिया के उत्थान के रूप में वर्णित किया जाता है।
एक समय एशिया विश्व-अर्थव्यवस्था का केंद्र था, लेकिन पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के बाद यह पिछड़ गया। और अन्य क्षेत्रों की तरह इसे नए साम्राज्यवाद का सामना करना पड़ा, जिसे पश्चिमी सैन्य और संचार प्रौद्योगिकियों ने संभव बनाया था। अब एशिया वैश्विक आर्थिक उत्पादन के प्रमुख स्रोत के रूप में अपनी पहले की स्थिति में लौट रहा है।
हालांकि यह अमेरिका की तुलना में यूरोप की कीमत पर अधिक हुआ है। वैश्विक जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा अभी भी एक-चौथाई है। चीन ने अमेरिका की बढ़त को काफी हद तक कम कर दिया है, लेकिन यह आर्थिक और सैन्य रूप से या गठबंधनों के मामले में अमेरिका से आगे नहीं निकल पाया है। लेकिन क्या अब हम अमेरिकी पतन के नए दौर में प्रवेश कर रहे हैं? (© प्रोजेक्ट सिंडिकेट)
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