चेतन भगत का कॉलम: हमारे युवा क्रिकेट देखते हुए कितना समय बिताते हैं? h3>
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- Chetan Bhagat’s Column How Much Time Do Our Youth Spend Watching Cricket?
10 घंटे पहले
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
जरा इस परिदृश्य पर विचार करें : एक घरेलू क्रिकेट लीग अपना वार्षिक टूर्नामेंट आयोजित करती है। एक टीम के खिताब जीतने के बाद 35,000 दर्शक-क्षमता वाले स्टेडियम में जीत का जश्न मनाया जाता है। लेकिन लाखों लोग चले आते हैं। अराजकता फैल जाती है। भगदड़ मच जाती है। 11 लोग मारे जाते हैं। दर्जनों घायल हैं। दोषारोपण का खेल शुरू हो जाता है।
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आपने अनुमान लगा लिया होगा- यह आईपीएल है। मनोरंजन का ऐसा जरिया, जिसने पूरे देश को मोहित कर रखा है। 2025 के आईपीएल फाइनल को कथित तौर पर टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर लगभग 69 करोड़ लोगों ने देखा, जो कि भारत की लगभग आधी आबादी है। नियमित मैचों को भी करोड़ों दर्शक मिलते हैं।
आरसीबी की जीत के जश्न के दौरान हुई दु:खद मौतें इस बात की याद दिलाती हैं कि क्रिकेट हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में कितनी गहराई से समा गया है। यह घटना इस बड़े सवाल को जन्म देती है कि क्या हम क्रिकेट को लेकर कुछ ज्यादा ही जुनूनी हो चुके हैं? और क्या यह उन अनगिनत घंटों पर विचार करने का समय नहीं है, जो कि हम और खासकर हमारे युवा स्क्रीन से चिपके हुए बिताते हैं?
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आईपीएल पारम्परिक अर्थों में राष्ट्रीय प्रतियोगिता नहीं है। फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सी टीम जीतती है, अंतिम निष्कर्ष में वह कोई भारतीय टीम ही होती है। इसमें खिलाड़ियों की नीलामी की जाती है और उन्हें कमोडिटीज़ की तरह खरीदा-बेचा जाता है।
टीमों का स्वामित्व कॉर्पोरेट्स, निजी व्यक्तियों और इंवेस्टमेंट-फंड्स के पास होता है यानी किसी शहर की टीम होने के बावजूद वे वास्तव में उस शहर का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। आईपीएल का फॉर्मेट ही व्यावसायिक है। तब हमें इसमें इतनी रुचि क्यों लेनी चाहिए कि भगदड़ का जोखिम उठाकर भी जश्न में शामिल होने को उमड़ पड़ें?
और वैसे भी आईपीएल का टी20 फॉर्मेट पारम्परिक क्रिकेट नहीं है। 20 ओवरों के साथ टीमें इस खेल का संकुचित संस्करण खेलती हैं। टी20 मैच के माध्यम से खिलाड़ी की गुणवत्ता का आकलन करना मात्र आधे सेट से ही किसी बेहतर टेनिस खिलाड़ी का निर्धारण करने जैसा है। यह रोमांचक हो सकता है, लेकिन यह निरंतरता और उत्कृष्टता को शायद ही दर्शाता है।
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यकीनन, क्रिकेट दिलचस्प खेल है (वैसे यह अंग्रेजों ने हमें दिया है), लेकिन क्या यह भारत में किसी भी अन्य खेल की तुलना में अधिक देखने लायक है? यह भी सच है कि भारत क्रिकेट में विश्व-स्तरीय है, लेकिन इस विश्व-स्तरीय खेल में दुनिया के कितने देश प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं?
यहां छह या सात ही अच्छी टीमें हैं। इनमें भी कुछ जैसे न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया की आबादी क्रमशः अहमदाबाद और मुंबई के बराबर है। और क्रिकेट वहां भी प्राथमिक खेल नहीं है। दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड का बजट भारत के बीसीसीआई के बजट के दसवें हिस्से से भी कम होता है। ऐसे में जब भारत क्रिकेट में जीतता है, तो यह जीत कितनी वैश्विक मानी जा सकती है?
खास तौर पर चिंताजनक बात यह है कि हमारे युवा क्रिकेट देखने में कितना समय बिताते हैं। अपने देश का समर्थन करने या आईपीएल में अपनी टीम को सपोर्ट करने के नाम पर साल के कई महीनों तक हर दिन कई घंटे बर्बाद होते हैं। जो युवा प्रशंसक गर्व से कहते हैं कि आई ब्लीड ब्लू या मेरा पसंदीदा खिलाड़ी ही सर्वश्रेष्ठ है, उनसे मैं पूछता हूं कि खिलाड़ी मैचों से कितना कमाते हैं? बेशक करोड़ों। और उन्हें देखकर आप कितना कमा लेते हैं? कुछ भी नहीं। शून्य।
तब वास्तव में आप ही यहां पर प्रोडक्ट हैं। आप मैच देखते हैं, आप विज्ञापन देखते हैं, आप नूडल्स, टायर, शैम्पू खरीदते हैं- और प्रायोजक पैसा कमाने में विभिन्न ब्रांड्स की मदद करते हैं। साल-दर-साल आप अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ दूसरों को सफल होते देखने में लगा देते हैं। जबकि असहज कर देने वाली सच्चाई यह है कि किसी को आपकी परवाह नहीं है, उन्हें सिर्फ इस बात की परवाह है कि आप आईपीएल देख रहे हैं।
तो अपने से पूछें कि क्या आप अपना जीवन दूसरों को सफल होते देखने में बिता देना चाहते हैं, या आप खुद इसके लिए प्रयास करना चाहेंगे? क्या आप एक सार्थक करियर बनाना पसंद करेंगे, या निजी स्वामित्व वाली किसी क्रिकेट टीम की सफलता का जश्न मनाने वाली भीड़ में अपनी जान जोखिम में डालना चाहेंगे?
खुद से यह सवाल पूछें कि क्या आप अपना स्वयं का एक सार्थक करियर बनाना पसंद करेंगे, या फिर निजी स्वामित्व वाली किसी क्रिकेट टीम की सफलता का जश्न मनाने वाली भीड़ में अपनी जान जोखिम में डालना चाहेंगे? (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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चेतन भगत, अंग्रेजी के उपन्यासकार
जरा इस परिदृश्य पर विचार करें : एक घरेलू क्रिकेट लीग अपना वार्षिक टूर्नामेंट आयोजित करती है। एक टीम के खिताब जीतने के बाद 35,000 दर्शक-क्षमता वाले स्टेडियम में जीत का जश्न मनाया जाता है। लेकिन लाखों लोग चले आते हैं। अराजकता फैल जाती है। भगदड़ मच जाती है। 11 लोग मारे जाते हैं। दर्जनों घायल हैं। दोषारोपण का खेल शुरू हो जाता है।
आपने अनुमान लगा लिया होगा- यह आईपीएल है। मनोरंजन का ऐसा जरिया, जिसने पूरे देश को मोहित कर रखा है। 2025 के आईपीएल फाइनल को कथित तौर पर टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर लगभग 69 करोड़ लोगों ने देखा, जो कि भारत की लगभग आधी आबादी है। नियमित मैचों को भी करोड़ों दर्शक मिलते हैं।
आरसीबी की जीत के जश्न के दौरान हुई दु:खद मौतें इस बात की याद दिलाती हैं कि क्रिकेट हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में कितनी गहराई से समा गया है। यह घटना इस बड़े सवाल को जन्म देती है कि क्या हम क्रिकेट को लेकर कुछ ज्यादा ही जुनूनी हो चुके हैं? और क्या यह उन अनगिनत घंटों पर विचार करने का समय नहीं है, जो कि हम और खासकर हमारे युवा स्क्रीन से चिपके हुए बिताते हैं?
आईपीएल पारम्परिक अर्थों में राष्ट्रीय प्रतियोगिता नहीं है। फर्क नहीं पड़ता कि कौन-सी टीम जीतती है, अंतिम निष्कर्ष में वह कोई भारतीय टीम ही होती है। इसमें खिलाड़ियों की नीलामी की जाती है और उन्हें कमोडिटीज़ की तरह खरीदा-बेचा जाता है।
टीमों का स्वामित्व कॉर्पोरेट्स, निजी व्यक्तियों और इंवेस्टमेंट-फंड्स के पास होता है यानी किसी शहर की टीम होने के बावजूद वे वास्तव में उस शहर का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। आईपीएल का फॉर्मेट ही व्यावसायिक है। तब हमें इसमें इतनी रुचि क्यों लेनी चाहिए कि भगदड़ का जोखिम उठाकर भी जश्न में शामिल होने को उमड़ पड़ें?
और वैसे भी आईपीएल का टी20 फॉर्मेट पारम्परिक क्रिकेट नहीं है। 20 ओवरों के साथ टीमें इस खेल का संकुचित संस्करण खेलती हैं। टी20 मैच के माध्यम से खिलाड़ी की गुणवत्ता का आकलन करना मात्र आधे सेट से ही किसी बेहतर टेनिस खिलाड़ी का निर्धारण करने जैसा है। यह रोमांचक हो सकता है, लेकिन यह निरंतरता और उत्कृष्टता को शायद ही दर्शाता है।
यकीनन, क्रिकेट दिलचस्प खेल है (वैसे यह अंग्रेजों ने हमें दिया है), लेकिन क्या यह भारत में किसी भी अन्य खेल की तुलना में अधिक देखने लायक है? यह भी सच है कि भारत क्रिकेट में विश्व-स्तरीय है, लेकिन इस विश्व-स्तरीय खेल में दुनिया के कितने देश प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं?
यहां छह या सात ही अच्छी टीमें हैं। इनमें भी कुछ जैसे न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया की आबादी क्रमशः अहमदाबाद और मुंबई के बराबर है। और क्रिकेट वहां भी प्राथमिक खेल नहीं है। दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड का बजट भारत के बीसीसीआई के बजट के दसवें हिस्से से भी कम होता है। ऐसे में जब भारत क्रिकेट में जीतता है, तो यह जीत कितनी वैश्विक मानी जा सकती है?
खास तौर पर चिंताजनक बात यह है कि हमारे युवा क्रिकेट देखने में कितना समय बिताते हैं। अपने देश का समर्थन करने या आईपीएल में अपनी टीम को सपोर्ट करने के नाम पर साल के कई महीनों तक हर दिन कई घंटे बर्बाद होते हैं। जो युवा प्रशंसक गर्व से कहते हैं कि आई ब्लीड ब्लू या मेरा पसंदीदा खिलाड़ी ही सर्वश्रेष्ठ है, उनसे मैं पूछता हूं कि खिलाड़ी मैचों से कितना कमाते हैं? बेशक करोड़ों। और उन्हें देखकर आप कितना कमा लेते हैं? कुछ भी नहीं। शून्य।
तब वास्तव में आप ही यहां पर प्रोडक्ट हैं। आप मैच देखते हैं, आप विज्ञापन देखते हैं, आप नूडल्स, टायर, शैम्पू खरीदते हैं- और प्रायोजक पैसा कमाने में विभिन्न ब्रांड्स की मदद करते हैं। साल-दर-साल आप अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ दूसरों को सफल होते देखने में लगा देते हैं। जबकि असहज कर देने वाली सच्चाई यह है कि किसी को आपकी परवाह नहीं है, उन्हें सिर्फ इस बात की परवाह है कि आप आईपीएल देख रहे हैं।
तो अपने से पूछें कि क्या आप अपना जीवन दूसरों को सफल होते देखने में बिता देना चाहते हैं, या आप खुद इसके लिए प्रयास करना चाहेंगे? क्या आप एक सार्थक करियर बनाना पसंद करेंगे, या निजी स्वामित्व वाली किसी क्रिकेट टीम की सफलता का जश्न मनाने वाली भीड़ में अपनी जान जोखिम में डालना चाहेंगे?
खुद से यह सवाल पूछें कि क्या आप अपना स्वयं का एक सार्थक करियर बनाना पसंद करेंगे, या फिर निजी स्वामित्व वाली किसी क्रिकेट टीम की सफलता का जश्न मनाने वाली भीड़ में अपनी जान जोखिम में डालना चाहेंगे? (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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