गरीबी के ज्वालामुखी में तपकर हीरा बने अरशद, पाकिस्तानी हैं तो क्या हिम्मत की दाद दीजिए h3>
जब नीरज चोपड़ा तोक्यो ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच रहे थे तो फील्ड में एक हरी जर्सी पहना हट्टा-कट्टा गबरू जवान भी था। वह भारत को गौरवान्वित करने वाले पल का साक्षी बना था। वह नीरज के उस भाले को छूना चाहता था। समझना चाहता था कि उस भाले में कुछ है या वाकई में नीरज ने अपने बाहुबल से सोने को चीर दिया है। वह जैवलिन थ्रोअर उस वक्त भी मौजूद रहा जब नीरज ने एथलेटिक्स वर्ल्ड चैंपियनशिप-2023 में 88.17 मीटर दूर हवा को चीरते हुए गोल्डन थ्रो लगाया। बस फर्क इतना था कि वह अब मामूली खिलाड़ी नहीं था। इस बार वह पोडियम पर खड़ा था नीरज के बगल में। गले में सिल्वर मेडल टांगे। जी हां, हम बात कर रहे अरशद नदीम की।
जिस तरह हरियाणा के एक छोटे से गांव से निकलकर नीरज चोपड़ा विश्व पटल पर छाए हुए हैं, कुछ वैसी ही कहानी है अरशद नदीम की। वह एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं और उन्हें विश्व चैंपियनशिप के पोडियम पर खड़े होने के लिए कई संघर्षों से गुजरना पड़ा है। अरशद का जन्म पंजाब में Khanewal जिले के मियां चन्नू गांव के एक गरीब किसान परिवार में हुआ। उनके पिता एक मजदूर थे और उनकी मां हाउस वाइफ। अरशद की पढ़ाई छूट गई, क्योंकि उनका परिवार उनकी शिक्षा का खर्च उठाने में सक्षम नहीं था।
दूसरी ओर, अरशद को बचपन से ही भाला फेंकने का शौक था। यह शौक उस वक्त सफलता पाने की सनक बन गया, जब उन्होंने अपने गांव में एक छोटी-सी प्रतियोगिता में भाग लिया और उसे जीत लिया। इस जीत ने उन्हें भाला फेंकने में अपना करियर बनाने के लिए प्रेरित किया। अरशद ने अपने करियर की शुरुआत में कई कठिनाइयों का सामना किया। उनके पास अच्छे उपकरण नहीं थे और उन्हें प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त धन नहीं था। एक और बात, उनके गांव में एथलेटिक्स से अधिक लोग क्रिकेट के फैंस थे। अधिकतर लोगों को इस खेल के बारे में पता ही नहीं था।
उन्होंने अपने गांव के एक मैदान में प्रशिक्षण लिया। अरशद ने लाहौर में भी प्रशिक्षण लिया और विश्व स्तरीय एथलीटों को मिलने वाली उन तमाम सुविधाओं को पाने के लिए संघर्ष किया। कोच सलमान बट के साथ प्रशिक्षण लिया तो टेर्सियस लिबेनबर्ग के साथ दो महीने बिताए। इस ट्रेनिंग ने उन्हें काफी मदद की। अरशद और बट पंजाब यूनिवर्सिटी जिम जाते थे, क्योंकि टोक्यो ओलिंपिक में 5वें नंबर पर रहने के बावजूद उनके लिए कोई जिम उपलब्ध नहीं कराया गया था।
वह एथलेटिक्स में ओलिंपिक के लिए सीधे क्वॉलीफाइ करने वाले पहले पाकिस्तानी बने थे। उन्होंने 2018 में एशियाई खेलों में कांस्य पदक भी जीता। यहां से अरशद की जिंदगी करवट लेने लगी थी। वह बर्मिंघम में 90 मीटर की बाधा को पार करने वाले पहले दक्षिण एशियाई बन गए। उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 90.18 मीटर के साथ स्वर्ण पदक जीता। इसके केवल 6 दिन बाद उन्होंने कोन्या में 88.55 मीटर के साथ एक और स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया को चौंका दिया। यहां भी उनके पास निजी कोच नहीं था।
यह अरशद नदीम का जज्बा और जिद का कमाल था कि उन्होंने वर्ल्ड चैंपियनशिप में अपने देश के हुक्मरानों, जो खेल पर खर्च करने से कतराते हैं, के गाल पर सफलता का तमाचा मारा। बात यहीं खत्म नहीं होती। पोडियम पर जश्न के दौरान अलग-थलग खड़े अरशद को जब हमारे हीरो नीरज ने बुलाया तो वह दौड़े चले आए। उनका दिल इतना साफ था कि इस बारे में सोचा ही नहीं कि उनके कंधे पर उनके देश का झंडा नहीं है। कट्टरपंथियों की दुश्मनी के बारे में नहीं सोचा और तिरंगे तले खड़े होकर पोज दिए। यह उन तमाम पाकिस्तानियों के चेहरे पर करारा तमाचा था, जो हर मंच पर भारत को विलेन बनाने पर तुले होते हैं। नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते हैं और राजनीति की रोटी सेंकते हैं। नदीम के इस जज्बे, हिम्मत और अल्हड़पन की दाद देनी चाहिए, जो हर बात से निफिक्र रहा।
जिस तरह हरियाणा के एक छोटे से गांव से निकलकर नीरज चोपड़ा विश्व पटल पर छाए हुए हैं, कुछ वैसी ही कहानी है अरशद नदीम की। वह एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं और उन्हें विश्व चैंपियनशिप के पोडियम पर खड़े होने के लिए कई संघर्षों से गुजरना पड़ा है। अरशद का जन्म पंजाब में Khanewal जिले के मियां चन्नू गांव के एक गरीब किसान परिवार में हुआ। उनके पिता एक मजदूर थे और उनकी मां हाउस वाइफ। अरशद की पढ़ाई छूट गई, क्योंकि उनका परिवार उनकी शिक्षा का खर्च उठाने में सक्षम नहीं था।
दूसरी ओर, अरशद को बचपन से ही भाला फेंकने का शौक था। यह शौक उस वक्त सफलता पाने की सनक बन गया, जब उन्होंने अपने गांव में एक छोटी-सी प्रतियोगिता में भाग लिया और उसे जीत लिया। इस जीत ने उन्हें भाला फेंकने में अपना करियर बनाने के लिए प्रेरित किया। अरशद ने अपने करियर की शुरुआत में कई कठिनाइयों का सामना किया। उनके पास अच्छे उपकरण नहीं थे और उन्हें प्रशिक्षण के लिए पर्याप्त धन नहीं था। एक और बात, उनके गांव में एथलेटिक्स से अधिक लोग क्रिकेट के फैंस थे। अधिकतर लोगों को इस खेल के बारे में पता ही नहीं था।
उन्होंने अपने गांव के एक मैदान में प्रशिक्षण लिया। अरशद ने लाहौर में भी प्रशिक्षण लिया और विश्व स्तरीय एथलीटों को मिलने वाली उन तमाम सुविधाओं को पाने के लिए संघर्ष किया। कोच सलमान बट के साथ प्रशिक्षण लिया तो टेर्सियस लिबेनबर्ग के साथ दो महीने बिताए। इस ट्रेनिंग ने उन्हें काफी मदद की। अरशद और बट पंजाब यूनिवर्सिटी जिम जाते थे, क्योंकि टोक्यो ओलिंपिक में 5वें नंबर पर रहने के बावजूद उनके लिए कोई जिम उपलब्ध नहीं कराया गया था।
वह एथलेटिक्स में ओलिंपिक के लिए सीधे क्वॉलीफाइ करने वाले पहले पाकिस्तानी बने थे। उन्होंने 2018 में एशियाई खेलों में कांस्य पदक भी जीता। यहां से अरशद की जिंदगी करवट लेने लगी थी। वह बर्मिंघम में 90 मीटर की बाधा को पार करने वाले पहले दक्षिण एशियाई बन गए। उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 90.18 मीटर के साथ स्वर्ण पदक जीता। इसके केवल 6 दिन बाद उन्होंने कोन्या में 88.55 मीटर के साथ एक और स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया को चौंका दिया। यहां भी उनके पास निजी कोच नहीं था।
यह अरशद नदीम का जज्बा और जिद का कमाल था कि उन्होंने वर्ल्ड चैंपियनशिप में अपने देश के हुक्मरानों, जो खेल पर खर्च करने से कतराते हैं, के गाल पर सफलता का तमाचा मारा। बात यहीं खत्म नहीं होती। पोडियम पर जश्न के दौरान अलग-थलग खड़े अरशद को जब हमारे हीरो नीरज ने बुलाया तो वह दौड़े चले आए। उनका दिल इतना साफ था कि इस बारे में सोचा ही नहीं कि उनके कंधे पर उनके देश का झंडा नहीं है। कट्टरपंथियों की दुश्मनी के बारे में नहीं सोचा और तिरंगे तले खड़े होकर पोज दिए। यह उन तमाम पाकिस्तानियों के चेहरे पर करारा तमाचा था, जो हर मंच पर भारत को विलेन बनाने पर तुले होते हैं। नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते हैं और राजनीति की रोटी सेंकते हैं। नदीम के इस जज्बे, हिम्मत और अल्हड़पन की दाद देनी चाहिए, जो हर बात से निफिक्र रहा।