क्या राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है कोर्ट: द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से ही पूछे 14 सवाल; असली खेल क्या है

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क्या राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है कोर्ट:  द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से ही पूछे 14 सवाल; असली खेल क्या है
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क्या राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है कोर्ट: द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से ही पूछे 14 सवाल; असली खेल क्या है

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पारित करने की समयसीमा तय की थी। अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के आर्टिकल 143 का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से ही 14 सवाल पूछ लिए हैं?

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क्या है पूरा मामला और इसके पीछे का खेल; NEWS4SOCIALएक्सप्लेनर में इससे जुड़े 8 जरूरी सवालों के जवाब जानेंगे…

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सवाल-1: आर्टिकल 143 क्या है और इसके तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से क्या सवाल किए? जवाब: भारत के संविधान में आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति को यह अधिकार मिलता है कि वो सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। यह संवैधानिक मुश्किलों को सुलझाने में मदद करता है। इसमें मुख्य रूप से दो तरह की राय के लिए अलग-अलग क्लॉज हैं-

आर्टिकल 143 (1): राष्ट्रपति किसी भी कानूनी या तथ्यात्मक सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं। यह जरूरी नहीं कि वह सवाल किसी मौजूदा विवाद से जुड़े हों। उदाहरण से समझें तो कोई नया कानून बनाने से पहले उसकी संवैधानिक वैधता पर राय ली जा सकती है।

आर्टिकल 143 (2): अगर कोई विवाद किसी ऐसी संधि, समझौते या अन्य दस्तावेजों से जुड़ा है, जो संविधान लागू होने यानी 26 जनवरी 1950 से पहले से चल रहा था, तो राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से उस पर राय मांग सकते हैं।

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने आर्टिकल 143 (1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल किए और राय मांगी है।

सवाल-2: राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से ये सवाल अभी ही क्यों किए? जवाब: दरअसल, तमिलनाडु विधानसभा में 2020 से 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए गए। इन्हें मंजूरी के लिए राज्यपाल आरएन रवि के पास भेजा गया। उन्होंने विधेयकों पर कोई कार्रवाई नहीं की, दबाकर रख लिया।

अक्टूबर 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई। इसके बाद राज्यपाल ने 10 विधेयक बिना साइन किए लौटा दिए और 2 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया। सरकार ने 10 विधेयक दोबारा पारित कर राज्यपाल के पास भेजे। राज्यपाल ने इस बार इन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया।

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सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को एक अहम फैसले में राज्यपाल के इस तरह विधेयक अटकाने को अवैध बता दिया। जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच ने राज्यपाल से कहा- ‘आप संविधान से चलें, पार्टियों की मर्जी से नहीं।’

राज्यपाल ने ‘ईमानदारी’ से काम नहीं किया। इसलिए कोर्ट ने आदेश दिया कि इन 10 विधेयकों को पारित माना जाए। यह पहली बार था जब राज्यपाल की मंजूरी के बिना विधेयक पारित हो गए।

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि (बाएं), सीएम स्टालिन (दाएं) के साथ।

दरअसल, संविधान में यह निर्धारित नहीं किया गया है कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल या राष्ट्रपति को कितने दिनों के भीतर मंजूरी या नामंजूरी देनी होगी। संविधान में सिर्फ इतना लिखा है कि उन्हें ‘जितनी जल्दी हो सके’ फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस ‘जितनी जल्दी हो सके’ को डिफाइन कर दिया है…

  • अगर राज्य सरकार कोई विधेयक मंजूरी के लिए भेजती है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी।
  • अगर राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति के पास भी इस पर फैसला लेने के लिए 3 महीने का ही समय होगा। इससे ज्यादा दिन होने पर उन्हें उचित कारण बताना होगा।
  • अगर राज्यपाल या राष्ट्रपति समय सीमा के भीतर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो राज्य सरकार अदालत जा सकती है।

इससे ये सवाल उठा कि क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को भी निर्देश दे सकती है। इसी के बाद राष्ट्रपति द्रोपदू मुर्मू से ये 14 सवाल किए हैं।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मुर्मू ने राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समय-सीमा तय करने जैसी बातों पर स्पष्टीकरण मांगा है।

सवाल-3: क्या सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति के सवालों का जवाब देने के बाध्य है? जवाब: सुप्रीम कोर्ट क्लॉज-1 के तहत राय देने के बाध्य नहीं है। यानी अगर कोर्ट को लगे कि मामला राय देने के लिए उचित नहीं है, तो वह मना कर सकती है। लेकिन क्लॉज-2 के तहत सुप्रीम कोर्ट को राय देना अनिवार्य होता है।

सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान के जानकार विराग गुप्ता कहते हैं, ‘राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से क्लॉज-1 के तहत 14 सवाल पूछे हैं, यानी सुप्रीम कोर्ट इन सवालों पर राय देने के बाध्य नहीं है। इससे पहले राम मंदिर विवाद पर नरसिम्हा राव की सरकार के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों के मामलों में राय देना अनुच्छेद 143 के दायरे में नहीं आता।’

1993 में कावेरी जल विवाद पर भी कोर्ट ने राय देने से इनकार कर दिया था। इसके अलावा 2002 में गुजरात चुनावों के मामले में कोर्ट ने कहा था कि अपील या पुनर्विचार याचिका की बजाय रेफरेंस भेजने का विकल्प गलत है।

विराग गुप्ता कहते हैं, ‘जिस तरह सुप्रीम कोर्ट बाध्य नहीं है, ठीक उसी तरह राष्ट्रपति और केंद्र सरकार भी सुप्रीम कोर्ट की राय मानने के बाध्य नहीं है। यानी अगर कोर्ट किसी मामले पर अपनी राय दे, तो यह राष्ट्रपति और सरकार की मर्जी है कि वह राय माने या न माने। हालांकि, यह राय बहुत महत्वपूर्ण होती है।’

सवाल-4: तो क्या सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के दायरे में राष्ट्रपति को निर्देश दिए थे? जवाब: हां। सुप्रीम कोर्ट आर्टिकल 142 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को भी निर्देश दे सकती है। दरअसल, भारत के संविधान निर्माताओं ने वो सभी बातें संविधान में शामिल कर लीं, जितनी उस वक्त तक सोची जा सकती थीं।

इसके साथ ही आर्टिकल 142 के जरिए सुप्रीम कोर्ट को ‘पूर्ण न्याय’ करने की विशेष शक्ति दे दी। ताकि जब कानून के मौजूदा प्रावधान पर्याप्त न हों या अस्पष्ट हों, तब भी न्याय सुनिश्चित किया जा सके। इसका मसौदा आर्टिकल 18 की तरह संविधान सभा में बिना बहस और विरोध के अपनाया गया था।

डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस अनुच्छेद का समर्थन करते हुए कहा था,

There may be many matters where the ordinary law may not be able to give a remedy. Article 142 is a safety valve.

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यानी, अगर कोई मामला इतना असाधारण हो कि मौजूदा कानून के जरिए न्याय न किया जा सके, तो ये अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट के लिए एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ है।

यह आर्टिकल सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ संविधान की व्याख्या करने के साथ अंतिम न्याय देने वाली संस्था बनाता है।

सवाल-5: इस पूरे मामले के पीछे केंद्र सरकार की राजनीति क्या है? जवाब: विराग गुप्ता कहते हैं, ‘इस पूरे मामले के पीछे केंद्र सरकार आर्टिकल 142 को टारगेट कर रही है। सरकार को लगता है कि देश की न्यायपालिका इस आर्टिकल का गलत इस्तेमाल कर रही है। हालांकि, हकीकत इससे जुदा है। केंद्र सरकार के ऑब्जेक्शन से इस आर्टिकल का कुछ नहीं बिगड़ेगा और न ही यह खत्म होगा। केंद्र सिर्फ इस आर्टिकल में बदलाव के प्रावधान कर सकती है।’

17 अप्रैल को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आर्टिकल 142 का विरोध किया था। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज ‘सुपर पार्लियामेंट’ की तरह काम कर रहे हैं।

17 अप्रैल को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा था, ‘जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।’

मौजूदा हालात में राष्ट्रपति के जरिए सुप्रीम कोर्ट से सवाल करने के पीछे केंद्र सरकार की 4 बड़ी वजहें हो सकती हैं-

  • केंद्र सराकर तमिलनाडु के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को दूसरे राज्यों पर लागू नहीं करवाना चाहती। यानी सरकार को डर है कि कहीं सुप्रीम कोर्ट तमिलनाडु की तरह किसी अन्य राज्य पर भी फैसला सुना दे।
  • आमतौर पर किसी जजमेंट के खिलाफ रिव्यू किया जाता है। लेकिन सरकार राष्ट्रपति के जरिए रेफ्रेंस भेजकर इस मामले को होल्ड कराना चाहती है।
  • इस मामले के बहाने केंद्र सरकार बताना चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट संसद और सरकार से ऊपर नहीं है। यानी सुप्रीम कोर्ट के फैसले सरकार पर नहीं चलेंगे।
  • इसके अलावा आर्टिकल 142 को चैलेंज करना चाहती है। यानी सरकार की भूमिका में सुप्रीम कोर्ट के दखल को मंजूर नहीं किया जाएगा।

सवाल-6: तो फिर इस मामले में आगे क्या हो सकता है? जवाब: विराग गुप्ता कहते हैं, ‘कोर्ट के नियम के मुताबिक तमिलनाडु मामले में केंद्र सरकार को पुनर्विचार याचिका दायर करनी चाहिए, क्योंकि कोर्ट मेरिट पर गए बगैर राष्ट्रपति के सवालों पर राय देने से मना कर सकती है। कोर्ट के पास इसके अधिकार हैं।’

हालांकि, विराग गुप्ता ने यह भी कहा,

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अगर कोर्ट ने राय देने का रेफरेंस स्वीकार कर लिया, तो उसे केंद्र-राज्य संबंध, संघीय व्यवस्था, राज्यपाल के अधिकार और आर्टिकल 142 के बेजा इस्तेमाल पर बहस करनी पड़ सकती है। क्योंकि कोर्ट ने 142 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति को निर्देश जारी कर दिए थे।

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सवाल-7: क्या पहले भी आर्टिकल 143 के तहत मामले सामने आए? जवाब: आर्टिकल 143 से जुड़े 3 बड़े मामले सामने आ चुके हैं, जब सुप्रीम कोर्ट ने राय दी…

  • दिल्ली लॉज एक्ट-1951: आर्टिकल 143 का सबसे पहला अहम मामला दिल्ली लॉज एक्ट में आया था। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने राय दी थी। कोर्ट ने कहा था, ‘विधायिका कुछ शक्तियों का डेलिगेशन कर सकती है, लेकिन उसे संविधान और सक्षम अधिनियम के दायरे में रहकर ऐसा करना चाहिए। हालांकि, आवश्यक विधायी कामों का डेलिगेशन नहीं हो सकता।’
  • केरल शिक्षा बिल- 1957: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने रेफरेंस की व्याख्या करने के साथ राय दी थी। कोर्ट ने पाया कि कुछ प्रावधानों ने अल्पसंख्यक संस्थानों की मान्यता और कंट्रोल से जुड़े संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन किया था। कोर्ट ने कहा था- ‘शिक्षा संस्थानों को विनियमित करने का अधिकार है, लेकिन ऐसे विनियम से अल्पसंख्यक समुदायों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए।’
  • इंदौर नगर निगम मामला: 2006 में इंदौर की नगर निगम मामले में सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने राय दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘नीतिगत मामलों में संसद और केंद्र सरकार के फैसलों पर न्यायिक दखल अंदाजी नहीं होनी चाहिए।’

सवाल-8: आखिर भारत में सबसे ऊपर कौन है, क्या अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं? जवाब: ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है, वहां की अदालतें संसद द्वारा बनाए कानून से बंधी होती हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। विराग गुप्ता कहते हैं…

  • भारत में सुप्रीमेसी ऑफ कॉन्स्टिट्यूशन है, न कि सुप्रीमेसी ऑफ पार्लियामेंट। यानी देश में संविधान सबसे ऊपर है। इसके तहत सभी के बीच शक्तियों का विभाजन है। इसलिए राष्ट्रपति का पद भी संविधान से ऊपर नहीं हो सकता और न ही संविधान के दायरे से बाहर जा सकता है।
  • सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को भी आदेश दे सकती है। उसे आर्टिकल 142 के तहत अधिकार है कि वह पूर्ण न्याय के लिए संविधान सम्मत फैसला ले सकती है, जिसमें जरूरत पड़ने पर राष्ट्रपति यानी केंद्र सरकार को आदेश देना भी शामिल है।
  • हालांकि राष्ट्रपति की तरह काम करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं है। मान लीजिए सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति करनी है और कॉलेजियम में कोई सिफारिश पेंडिंग है, तो सुप्रीम कोर्ट यह नहीं कह सकती कि इतने दिनों से सिफारिश पेंडिंग है, तो हम राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना नियुक्ति कर देते हैं।

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