कौशिक बसु का कॉलम: एशिया के देश दुनिया में ग्रोथ के इंजन बन सकते हैं h3>
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
अमेरिका में संरक्षणवाद के बढ़ते प्रभाव और पश्चिमी दुनिया में राजनीतिक दरारों के उभरने के साथ, एशिया पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने की विशेष जिम्मेदारी है। आर्थिक विकास की दृष्टि से आज एशिया स्पष्ट रूप से आगे है।
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1968 में जब गुन्नार मिर्डाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ प्रकाशित की थी, तो लगभग सभी एशियाई देशों की प्रति व्यक्ति आय 1,000 डॉलर से कम थी। उस समय चीन की प्रति व्यक्ति आय $91 थी, भारत की $102, पाकिस्तान की $142 और सिंगापुर की $709।
एशिया की उल्लेखनीय प्रगति स्पष्ट है, जब इन आंकड़ों की तुलना 2023 की प्रति व्यक्ति आय से की जाती है। आज चीन की प्रति व्यक्ति आय $12,614 है, भारत की $2,481, पाकिस्तान की $1,365 और सिंगापुर की आश्चर्यजनक रूप से $84,734!
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और भी महत्वपूर्ण यह है कि एशिया का अधिकांश भाग एक और दौर के आर्थिक विकास के लिए तैयार दिखाई देता है। अधिकांश एशियाई देश बचत और निवेश दरों के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। चीन ने ईवी और अन्य पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। यह चीन को विकसित हो रही दुनिया में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने में मदद करेगा।
जिस तरह औद्योगिक क्रांति ने जीडीपी की संरचना और स्वरूप को बदल दिया, मुझे विश्वास है कि डिजिटल क्रांति भी दुनिया में बड़ा बदलाव लाएगी। नए युग में जिन दो क्षेत्रों का वर्चस्व रहेगा, वे हैं स्वास्थ्य और शिक्षा। भारत स्वास्थ्य क्षेत्र में मजबूत स्थिति में है, क्योंकि यह दुनिया के सबसे बड़े दवा उद्योगों में से एक का केंद्र है।
शिक्षा के क्षेत्र में, दक्षिण कोरिया ग्लोबल लीडर है। यदि हम विभिन्न देशों द्वारा दिए जा रहे बौद्धिक संपदा पेटेंट पर नजर डालें, तो दुनिया के शीर्ष पांच देशों में चार एशियाई देश शामिल हैं : दक्षिण कोरिया, जापान, चीन और भारत।
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इन आर्थिक लाभों के बावजूद, एशिया की कमजोरी अमेरिका और यूरोप की तुलना में अधिक विविध राजनीतिक परिदृश्य है। उदाहरण के लिए, 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन के दौरान, उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप साथ मिलकर आईएमएफ और विश्व बैंक की स्थापना करने में सक्षम हुए थे, क्योंकि उनके राजनीतिक आदर्श समान थे।
लेकिन चीन और वियतनाम में एकदलीय साम्यवादी शासन से लेकर म्यांमार में सैन्य अधिनायकवाद और जापान, कोरिया तथा भारत में चुनावी-लोकतंत्र तक, एशिया राजनीतिक प्रणालियों का एक मिश्रण है। एशिया को अब अपनी विविधता के बावजूद सहयोग के लिए एक साझा मंच स्थापित करने की आवश्यकता है।
1955 का बांडुंग सम्मेलन सुकर्णो और नेहरू के नेतृत्व में हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक था- विशेष रूप से उन राष्ट्रों के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन को बढ़ावा देना, जो हाल ही में औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुए थे। लेकिन इसकी एक बड़ी महत्वाकांक्षा आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहित करने की भी थी।
एशिया के पास एक नई पहल शुरू करने का अवसर है, जहां देश अपनी आंतरिक राजनीतिक संरचनाओं में मौजूद भिन्नताओं को स्वीकार करें, लेकिन फिर भी शांति और एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के साझा लक्ष्य के लिए साथ आएं, जो समावेशी हो।
आज हमारे सामने मौजूद कई समस्याओं की एक प्रमुख जड़ आर्थिक असमानता है। अत्यधिक आर्थिक असमानता अपने आपमें गंभीर समस्या है, लेकिन आज के डिजिटल युग में, जहां धन का उपयोग सूचना और प्रभाव के मंचों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए किया जा सकता है, आर्थिक विषमता का बढ़ना लोकतंत्र और अभिव्यक्ति के अधिकार को कुचलने के साथ-साथ चलता है। जब कुछ लोग असीमित संपत्ति अर्जित कर लेते हैं, तो आम जनता न केवल आर्थिक स्थिति में पिछड़ती है, उनकी आवाज भी कमजोर पड़ती है।
मुझे पूरा विश्वास है कि एक समय आएगा जब हमारी आने वाली पीढ़ियां आज की दुनिया की ओर पीछे मुड़कर देखेंगी तो यह देखकर स्तब्ध रह जाएंगी कि हमने इतनी आर्थिक विषमता को कैसे सहन किया, ठीक वैसे ही जैसे हम आज अपने पूर्वजों द्वारा दासता और बंधुआ मजदूरी को सहने पर चकित होते हैं।
हालांकि, किसी भी राष्ट्र के लिए अकेले विषमता का समाधान करना सीमित दायरे में संभव है। अत्यधिक सख्त नीतियां पूंजी के पलायन का कारण भी बन सकती हैं। जरूरत यह है कि कई देश मिलकर एक सामूहिक और समन्वित प्रयास करें, जहां राजकोषीय नीतियों और कराधान का ऐसा समन्वय हो कि दुनिया अधिक न्यायसंगत बन सके।
एशियाई देश बहुपक्षीय पहलों का नेतृत्व करने और वैश्विक आर्थिक विकास के इंजन को गति देने के लिए उपयुक्त स्थिति में हैं। हाल के वर्षों में रिसर्च, इंजीनियरिंग, विज्ञान और ईवी के क्षेत्र में उनकी सफलता ने उन्हें सक्षम बनाया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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कौशिक बसु विश्व बैंक के पूर्व चीफ इकोनॉमिस्ट
अमेरिका में संरक्षणवाद के बढ़ते प्रभाव और पश्चिमी दुनिया में राजनीतिक दरारों के उभरने के साथ, एशिया पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने की विशेष जिम्मेदारी है। आर्थिक विकास की दृष्टि से आज एशिया स्पष्ट रूप से आगे है।
1968 में जब गुन्नार मिर्डाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एशियन ड्रामा’ प्रकाशित की थी, तो लगभग सभी एशियाई देशों की प्रति व्यक्ति आय 1,000 डॉलर से कम थी। उस समय चीन की प्रति व्यक्ति आय $91 थी, भारत की $102, पाकिस्तान की $142 और सिंगापुर की $709।
एशिया की उल्लेखनीय प्रगति स्पष्ट है, जब इन आंकड़ों की तुलना 2023 की प्रति व्यक्ति आय से की जाती है। आज चीन की प्रति व्यक्ति आय $12,614 है, भारत की $2,481, पाकिस्तान की $1,365 और सिंगापुर की आश्चर्यजनक रूप से $84,734!
और भी महत्वपूर्ण यह है कि एशिया का अधिकांश भाग एक और दौर के आर्थिक विकास के लिए तैयार दिखाई देता है। अधिकांश एशियाई देश बचत और निवेश दरों के मामले में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। चीन ने ईवी और अन्य पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। यह चीन को विकसित हो रही दुनिया में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने में मदद करेगा।
जिस तरह औद्योगिक क्रांति ने जीडीपी की संरचना और स्वरूप को बदल दिया, मुझे विश्वास है कि डिजिटल क्रांति भी दुनिया में बड़ा बदलाव लाएगी। नए युग में जिन दो क्षेत्रों का वर्चस्व रहेगा, वे हैं स्वास्थ्य और शिक्षा। भारत स्वास्थ्य क्षेत्र में मजबूत स्थिति में है, क्योंकि यह दुनिया के सबसे बड़े दवा उद्योगों में से एक का केंद्र है।
शिक्षा के क्षेत्र में, दक्षिण कोरिया ग्लोबल लीडर है। यदि हम विभिन्न देशों द्वारा दिए जा रहे बौद्धिक संपदा पेटेंट पर नजर डालें, तो दुनिया के शीर्ष पांच देशों में चार एशियाई देश शामिल हैं : दक्षिण कोरिया, जापान, चीन और भारत।
इन आर्थिक लाभों के बावजूद, एशिया की कमजोरी अमेरिका और यूरोप की तुलना में अधिक विविध राजनीतिक परिदृश्य है। उदाहरण के लिए, 1944 में ब्रेटन वुड्स सम्मेलन के दौरान, उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप साथ मिलकर आईएमएफ और विश्व बैंक की स्थापना करने में सक्षम हुए थे, क्योंकि उनके राजनीतिक आदर्श समान थे।
लेकिन चीन और वियतनाम में एकदलीय साम्यवादी शासन से लेकर म्यांमार में सैन्य अधिनायकवाद और जापान, कोरिया तथा भारत में चुनावी-लोकतंत्र तक, एशिया राजनीतिक प्रणालियों का एक मिश्रण है। एशिया को अब अपनी विविधता के बावजूद सहयोग के लिए एक साझा मंच स्थापित करने की आवश्यकता है।
1955 का बांडुंग सम्मेलन सुकर्णो और नेहरू के नेतृत्व में हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक था- विशेष रूप से उन राष्ट्रों के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन को बढ़ावा देना, जो हाल ही में औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुए थे। लेकिन इसकी एक बड़ी महत्वाकांक्षा आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहित करने की भी थी।
एशिया के पास एक नई पहल शुरू करने का अवसर है, जहां देश अपनी आंतरिक राजनीतिक संरचनाओं में मौजूद भिन्नताओं को स्वीकार करें, लेकिन फिर भी शांति और एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यवस्था के साझा लक्ष्य के लिए साथ आएं, जो समावेशी हो।
आज हमारे सामने मौजूद कई समस्याओं की एक प्रमुख जड़ आर्थिक असमानता है। अत्यधिक आर्थिक असमानता अपने आपमें गंभीर समस्या है, लेकिन आज के डिजिटल युग में, जहां धन का उपयोग सूचना और प्रभाव के मंचों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए किया जा सकता है, आर्थिक विषमता का बढ़ना लोकतंत्र और अभिव्यक्ति के अधिकार को कुचलने के साथ-साथ चलता है। जब कुछ लोग असीमित संपत्ति अर्जित कर लेते हैं, तो आम जनता न केवल आर्थिक स्थिति में पिछड़ती है, उनकी आवाज भी कमजोर पड़ती है।
मुझे पूरा विश्वास है कि एक समय आएगा जब हमारी आने वाली पीढ़ियां आज की दुनिया की ओर पीछे मुड़कर देखेंगी तो यह देखकर स्तब्ध रह जाएंगी कि हमने इतनी आर्थिक विषमता को कैसे सहन किया, ठीक वैसे ही जैसे हम आज अपने पूर्वजों द्वारा दासता और बंधुआ मजदूरी को सहने पर चकित होते हैं।
हालांकि, किसी भी राष्ट्र के लिए अकेले विषमता का समाधान करना सीमित दायरे में संभव है। अत्यधिक सख्त नीतियां पूंजी के पलायन का कारण भी बन सकती हैं। जरूरत यह है कि कई देश मिलकर एक सामूहिक और समन्वित प्रयास करें, जहां राजकोषीय नीतियों और कराधान का ऐसा समन्वय हो कि दुनिया अधिक न्यायसंगत बन सके।
एशियाई देश बहुपक्षीय पहलों का नेतृत्व करने और वैश्विक आर्थिक विकास के इंजन को गति देने के लिए उपयुक्त स्थिति में हैं। हाल के वर्षों में रिसर्च, इंजीनियरिंग, विज्ञान और ईवी के क्षेत्र में उनकी सफलता ने उन्हें सक्षम बनाया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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