एन. रघुरामन का कॉलम: हॉलिडे डेस्टिनेशन अलग अनुभव और सीख देने वाले होने चाहिए h3>
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8 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
गर्मी के मौसम में जब मैं गांव की सुनसान सड़कों पर चल रहा था, तो मिट्टी की छत वाले अधिकतर घरों के दरवाजे बंद थे। कोई भी नजर नहीं आ रहा था। इस अकेलेपन में सिर्फ आवारा कुत्ते थे, जो हम अजनबियों पर भौंक रहे थे। दूर से मंदिर की घंटियों की आवाज आ रही थी।
मैंने अपने पिता से पूछा, ‘इस गांव में देखने लायक क्या है?’ उन्होंने शांतिपूर्वक कहा, ‘यहां सुविधाओं की कमी और गरीबी है। यह तुम्हें यह एहसास कराने के लिए है कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि हम ऐसी जगह रहते हैं जहां हर सुविधा उपलब्ध है।’ यह 1960 के दशक में रामेश्वरम के पास का एक छोटा सा गांव था।
यह दशकों पुराना अनुभव चंद दिनों पहले मुझे तब याद आया, जब मैं बिल्कुल उसी माहौल में गया था, लेकिन शून्य से नीचे तापमान में। यह दूरदराज का एक गांव था, जहां की ज्यादातर गलियां खाली थीं, घरों के दरवाजे बंद थे और शायद ही कोई दिख रहा था। हल्की बर्फबारी हो रही थी और सब कुछ बंद था।
भारत-तिब्बत सीमा पर भागीरथी नदी के किनारे स्थित यह गांव बगोरी, हरसिल घाटी की खूबसूरती से घिरा है और यह गांव तब भी और अब भी ‘भूतिया गांव’ कहलाता है। गांव की सड़कों पर बर्फ में चलते पहाड़ी कुत्ते और मंदिर की घंटियों की आवाज़ सुनाई देती है। समुद्र तल से 648 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बगोरी का सामान्य तापमान 15-20 डिग्री सेल्सियस रहता है।
सर्दियों में ये शून्य से नीचे चला जाता है। पहले के दिनों में ऐसी स्थितियों में बगोरी के लोग उत्तरकाशी जिले के निचले और गर्म क्षेत्रों में चले जाते थे। इससे गांव लगभग छह महीने तक वीरान रहता है। और लोग अमूमन मई से नवंबर के बीच गर्म महीनों में वापस लौटते हैं।
सोमवार को मुझे पता चला कि बगोरी जैसे गांवों के ज्यादातर लोग छुट्टियों के अलावा घर नहीं लौटते। इसका कारण है कि इन गांवों में एक भी प्राथमिक स्कूल नहीं है और गांव की महिलाएं अपने बच्चों के साथ देहरादून और उत्तरकाशी जैसे शहरों में चली गई हैं। पुरुष यहां सेब के बाग और पर्यटन व्यवसाय संभालते हैं।
यह समस्या सिर्फ बगोरी की नहीं है, बल्कि आसपास के सुखी, हर्षिल, मुखबा, जसपुर, पुराली, धराली और झाला जैसे गांवों की भी है। इन गांवों में कुछ प्राथमिक स्कूल हैं, जिन्हें दो शिक्षक सभी विषय पढ़ाते हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी ने इन परिवारों को अलग रहने पर मजबूर कर दिया है।
पुरुष गांवों में रहते हैं क्योंकि चार धाम यात्रा मार्ग की तीर्थयात्रा अर्थव्यवस्था से उन्हें नियमित आय होती है। पर्यटन के कम दिनों में सेब की खेती मौसमी आय का मजबूत स्रोत है। पुरुष अपनी जमीन और लॉज संभालते हैं और बुजुर्ग रिश्तेदार खेतों में पुरुषों की या शहरों में महिलाओं की मदद करते हैं।
यहां के लोग यह मानते हैं कि शिक्षा ही आर्थिक सफलता का मूल मंत्र है, इसलिए लोग बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई के लिए बाहर चले जाते हैं। कई सालों बाद जब बेटे (मैं खुद) और पिता के बीच दिल से दिल की बात हुई, तब पिता ने साझा किया कि कैसे उस यात्रा के बाद बेटे की पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में सुधार हुआ।
उस गरीबी ने मेरे दिल पर ऐसी छाप छोड़ी कि तबसे मैंने हमेशा कड़ी मेहनत की ताकि परिवार को बेहतर जीवन स्तर और समृद्धि मिल सके। अगर आप ऊपर बताई जगहों में कहीं जाना चाहें तो ये देहरादून से हवाई व सड़क मार्ग, ऋषिकेश से रेल व सड़क मार्ग और टिहरी से सड़क मार्ग से जुड़े हैं।
फंडा यह है कि आगामी गर्मी की छुट्टियों में यात्रा की योजना बनाएं, लेकिन सोशल साइट्स पर दिखावे के लिए नहीं। बल्कि, यह अनुभव देने और नई पीढ़ी को मजबूत लेसन सिखाने के लिए होनी चाहिए। सही लक्ष्यों के साथ की गई पारिवारिक यात्रा को बच्चे कभी नहीं भूलते।
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
गर्मी के मौसम में जब मैं गांव की सुनसान सड़कों पर चल रहा था, तो मिट्टी की छत वाले अधिकतर घरों के दरवाजे बंद थे। कोई भी नजर नहीं आ रहा था। इस अकेलेपन में सिर्फ आवारा कुत्ते थे, जो हम अजनबियों पर भौंक रहे थे। दूर से मंदिर की घंटियों की आवाज आ रही थी।
मैंने अपने पिता से पूछा, ‘इस गांव में देखने लायक क्या है?’ उन्होंने शांतिपूर्वक कहा, ‘यहां सुविधाओं की कमी और गरीबी है। यह तुम्हें यह एहसास कराने के लिए है कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि हम ऐसी जगह रहते हैं जहां हर सुविधा उपलब्ध है।’ यह 1960 के दशक में रामेश्वरम के पास का एक छोटा सा गांव था।
यह दशकों पुराना अनुभव चंद दिनों पहले मुझे तब याद आया, जब मैं बिल्कुल उसी माहौल में गया था, लेकिन शून्य से नीचे तापमान में। यह दूरदराज का एक गांव था, जहां की ज्यादातर गलियां खाली थीं, घरों के दरवाजे बंद थे और शायद ही कोई दिख रहा था। हल्की बर्फबारी हो रही थी और सब कुछ बंद था।
भारत-तिब्बत सीमा पर भागीरथी नदी के किनारे स्थित यह गांव बगोरी, हरसिल घाटी की खूबसूरती से घिरा है और यह गांव तब भी और अब भी ‘भूतिया गांव’ कहलाता है। गांव की सड़कों पर बर्फ में चलते पहाड़ी कुत्ते और मंदिर की घंटियों की आवाज़ सुनाई देती है। समुद्र तल से 648 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बगोरी का सामान्य तापमान 15-20 डिग्री सेल्सियस रहता है।
सर्दियों में ये शून्य से नीचे चला जाता है। पहले के दिनों में ऐसी स्थितियों में बगोरी के लोग उत्तरकाशी जिले के निचले और गर्म क्षेत्रों में चले जाते थे। इससे गांव लगभग छह महीने तक वीरान रहता है। और लोग अमूमन मई से नवंबर के बीच गर्म महीनों में वापस लौटते हैं।
सोमवार को मुझे पता चला कि बगोरी जैसे गांवों के ज्यादातर लोग छुट्टियों के अलावा घर नहीं लौटते। इसका कारण है कि इन गांवों में एक भी प्राथमिक स्कूल नहीं है और गांव की महिलाएं अपने बच्चों के साथ देहरादून और उत्तरकाशी जैसे शहरों में चली गई हैं। पुरुष यहां सेब के बाग और पर्यटन व्यवसाय संभालते हैं।
यह समस्या सिर्फ बगोरी की नहीं है, बल्कि आसपास के सुखी, हर्षिल, मुखबा, जसपुर, पुराली, धराली और झाला जैसे गांवों की भी है। इन गांवों में कुछ प्राथमिक स्कूल हैं, जिन्हें दो शिक्षक सभी विषय पढ़ाते हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी ने इन परिवारों को अलग रहने पर मजबूर कर दिया है।
पुरुष गांवों में रहते हैं क्योंकि चार धाम यात्रा मार्ग की तीर्थयात्रा अर्थव्यवस्था से उन्हें नियमित आय होती है। पर्यटन के कम दिनों में सेब की खेती मौसमी आय का मजबूत स्रोत है। पुरुष अपनी जमीन और लॉज संभालते हैं और बुजुर्ग रिश्तेदार खेतों में पुरुषों की या शहरों में महिलाओं की मदद करते हैं।
यहां के लोग यह मानते हैं कि शिक्षा ही आर्थिक सफलता का मूल मंत्र है, इसलिए लोग बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई के लिए बाहर चले जाते हैं। कई सालों बाद जब बेटे (मैं खुद) और पिता के बीच दिल से दिल की बात हुई, तब पिता ने साझा किया कि कैसे उस यात्रा के बाद बेटे की पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में सुधार हुआ।
उस गरीबी ने मेरे दिल पर ऐसी छाप छोड़ी कि तबसे मैंने हमेशा कड़ी मेहनत की ताकि परिवार को बेहतर जीवन स्तर और समृद्धि मिल सके। अगर आप ऊपर बताई जगहों में कहीं जाना चाहें तो ये देहरादून से हवाई व सड़क मार्ग, ऋषिकेश से रेल व सड़क मार्ग और टिहरी से सड़क मार्ग से जुड़े हैं।
फंडा यह है कि आगामी गर्मी की छुट्टियों में यात्रा की योजना बनाएं, लेकिन सोशल साइट्स पर दिखावे के लिए नहीं। बल्कि, यह अनुभव देने और नई पीढ़ी को मजबूत लेसन सिखाने के लिए होनी चाहिए। सही लक्ष्यों के साथ की गई पारिवारिक यात्रा को बच्चे कभी नहीं भूलते।
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