एन. रघुरामन का कॉलम: क्या हम अपनी लाइफ को स्लो या फास्ट लेन में ड्राइव कर रहे हैं?

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एन. रघुरामन का कॉलम:  क्या हम अपनी लाइफ को स्लो या फास्ट लेन में ड्राइव कर रहे हैं?
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एन. रघुरामन का कॉलम: क्या हम अपनी लाइफ को स्लो या फास्ट लेन में ड्राइव कर रहे हैं?

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4 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

कल्पना करें, आपका दफ्तर घर से 10 किमी दूर है और ये सोचकर कार ली कि व्यस्ततम समय में 10 से 15 मिनट में पहुंच सकते हैं, तो जरा रुकिए और ये बुरी खबर सुनिए। अहमदाबाद जैसे शहर में व्यस्ततम समय में 10 किमी दूरी तय करने में 29 मिनट लगते हैं और जयपुर में 28 मिनट!

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वहीं चेन्नई जैसा शहर, जहां कई लोग पैदल चलना पसंद करते हैं, वहां ये दूरी तय करने में 30 मिनट लगते हैं, वहीं पुणे, बेंगलुरु और कोलकाता सबसे खराब श्रेणी में आते हैं, जहां ये दूरी तय करने में क्रमशः 33, 34 और 35 मिनट लगते हैं, इस तरह ये दुनिया के टॉप 10 सबसे स्लो मूविंग शहर में आते हैं!

दिलचस्प बात है कि मुंबई-दिल्ली जैसे शहर जहां ज्यादा कारें हैं, वहां उतनी ही दूरी तय करने में 29.26 और 23 मिनट लगते हैं। टॉमटॉम ट्रैफिक इंडेक्स, जो 62 देशों के 500 शहरों में ट्रैफिक पैटर्न का अध्ययन करती है, इसके 14वें संस्करण में ऐसे शहरों में वृद्धि देखी गई, जहां साल 2024 में मुंबई-दिल्ली की तुलना में बहुत ज्यादा भीड़भाड़ देखी गई।

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ये बुरी खबर यहीं खत्म नहीं होती। मेट्रो सुविधाएं बढ़ाने और नई सड़कों के निर्माण के बाद भी चूंकि मुंबई ने दूरी तय करने के मामले में 2023 की तुलना में 2024 में प्रदर्शन बेहतर नहीं किया है, ऐसे में अब अधिकािरयों ने मुंबई में ऐसे इलाके चिह्नित किए हैं, जहां साल 2025 से “कंजेशन टैक्स’ लागू किया जा सकता है।

एक बार नियामक प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद, व्यस्ततम घंटों में इन इलाकों में गाड़ियों के प्रवेश पर शुल्क लिया जाएगा, ये लंदन व न्यूयॉर्क में लागू कंजेशन प्राइसिंग सिस्टम की तरह होगा, जो कि हाल ही में 13 किमी के लिए शुरू हुआ है। सिंगापुर ने भी इसी तरह की फीस लगभग दो दशक पहले शुरू की थी।

शहर की सड़कों पर एक्सीलेटर को जोर से न दबा पाने की मजबूरी और इससे उपजी खीझ, दुनियाभर में कई मोटर चालकों के लिए हाईवे पर गाड़ी चलाते हुए सबसे बड़े मनोवैज्ञानिक कारणों में से एक बनती है, जहां वे एक्सीलेटर को जोर से दबाते हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो गति सीमा उल्लंघन के बढ़ते जुर्माने को कैसे सही ठहराएंगे और यह न सिर्फ भारत में बल्कि कनाडा और अमेरिका जैसे सबसे विकसित देशों में भी हो रहा है, जहां स्पीड कैमरा स्थानीय ट्रैफिक अधिकारियों के लिए पैसा देने वाली दुधारू गाय की तरह हैं।

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हम दुर्घटनाओं की बात नहीं कर रहे हैं, हालांकि लगभग 72% दुर्घटनाएं तेज गति की ओर इशारा कर रही हैं। ज्यादातर लोग खुद को अच्छा ड्राइवर मानते हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि ऐसे ज्यादातर लोग जो सोचते हैं कि वे अच्छे ड्राइवर हैं, वे खुद को ही जज करते हैं और अपनी ही परिभाषा गढ़ लेते हैं, जो उनके मुताबिक उचित जान पड़ती है।

ऐसे में उन्हें लगता है कि कानून दूसरों के लिए है। लेकिन सामाजिक कायदे सबसे ज्यादा सड़कों ही लागू होते हैं, जितना और कहीं नहीं होते। जहां ड्राइवर्स एक खास जगह पर ट्राफिक नियमों का उल्लंघन होते हुए देखते हैं, वो बेकार ड्राइविंग व्यवहार भी उनके अंदर आ जाता है, क्योंकि ये अस्थायी भाव उनको भी बदलकर रख देता है।

हर शहर में जैसे ही लोग ट्रैफिक लाइट पर ब्रेक लगाते हैं, पीछे वाले जोर से हॉर्न बजाते हुए उकसाते हैं। और हमारे देश के अधिकांश ड्राइवर्स खीझे हुए रहते हैं, खासकर गाड़ी चलाते हुए, वो इसलिए क्योंकि वे सड़कों के इंफ्रास्ट्रक्चर (पढ़ें शहर भी) के आधार पर यात्रा के समय की योजना शायद ही बनाते हों।

इसके अलावा, कई ड्राइवरों को लगता है कि पुलिस अधिकारी की आसपास अनुपस्थिति होने पर कानून तोड़ना गलत नहीं है। यही कारण है कि दुनिया स्पीड कैमरों को कहीं अधिक तेजी से अपना रही है। और लोग यह कहकर कैमरों को कोसते हैं कि ये गाड़ियों की गतिशीलता की बेहतरी में कोई योगदान नहीं देते हैं। बल्कि ड्राइवर्स के समय प्रबंधन में कमी और तेज गति से गाड़ी चलाना बढ़ते शहरों की समस्या है, ना कि कैमरा, फाइन और अतिरिक्त कंजेशन टैक्स की।

फंडा यह है कि जिंदगी में धीमे ‘ड्राइव’ करने की योजना बनाएं, इसके लिए अपने-अपने शहरों के मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर स्टेटस को देखते हुए बुद्धिमानी से यात्रा के समय की योजना बनाएं।

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