एन. रघुरामन का कॉलम: क्या आपको पता है जीवन में किन्हें ज्यादा मिलता है?

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एन. रघुरामन का कॉलम:  क्या आपको पता है जीवन में किन्हें ज्यादा मिलता है?

एन. रघुरामन का कॉलम: क्या आपको पता है जीवन में किन्हें ज्यादा मिलता है?

2 घंटे पहले

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

“आज बहुत गर्मी है, सीधे घर जाना और ये सूंघते हुए जाना।’ हम सभी स्कूली छात्रों ने अपने शिक्षकों से कई बार यह निर्देश सुना होगा। वे स्कूल के गेट के बाहर कंधे पर कपड़े का एक छोटा-सा थैला लटकाए खड़े रहते थे, जिसमें से वे कटे हुए प्याज का एक टुकड़ा उठाकर हमें देते थे।

एक प्याज को अमूमन चार टुकड़ों में काटा जाता था। वे जानते थे कि स्कूल से दूर रहने वाले कौन हैं, जिन्हें वे प्याज के साथ निर्देश देते थे। जबकि स्कूल से पांच मिनट की दूरी पर रहने वाले बच्चों को प्याज दिए बिना ही कहा जाता था कि वे तेजी से भागकर घर पहुंचें।

हमारे स्कूल- सरस्वती विद्यालय, नागपुर में यह एक आम बात थी। और आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन प्याज के लिए कौन पैसे देता था। उसमें सभी का योगदान होता, पैरेंट्स, ट्रस्टी या स्वयं शिक्षकों का भी। लेकिन हमसे कभी इसके लिए पैसे नहीं मांगे जाते थे।

उनका एकमात्र फोकस इसी बात पर था कि कोई भी बच्चा भीषण गर्मी की चपेट में न आए। लेकिन उन्हें कभी इस बात की चिंता नहीं होती थी कि प्याज कहां से आएगा। वे बच्चों को प्याज बांट देते थे और कहीं से प्याज की अगली खेप भी आ जाती थी।

इसी तरह, मेरे घर के पास मौजूद होटलें, दुकानदार और यहां तक कि कुछ घर भी ऐसे थे, जो गर्मी से बेहाल लोगों को छाछ बांटते थे। अगर आप उस छाछ को चखते तो पाते कि वह पानीदार होती- उसमें नाममात्र का दही और बहुत सारा पानी होता। लेकिन ढेर सारे कड़ी पत्ते, अदरक और थोड़े-से मसाला पाउडर के चलते वह बहुत स्वादिष्ट लगती थी। उसमें कुछ देने की भावना भी घुली-मिली होती थी ताकि शहर के लोग गर्मियों के मौसम का सामना कर पाएं। यही कारण है कि वह मट्ठा-छाछ प्यासे कंठों को राहत देती थी। यह कई दशक पहले की बात है।

मुझे अपने बचपन की यह बात तब याद आ गई, जब 21 मार्च, 2025 को महाराष्ट्र आपदा प्रबंधन विभाग ने हीटवेव प्रिकॉशन गाइडलाइंस पर 13 पन्नों का निर्देश जारी किया। निर्देशों में शिक्षा विभाग से कहा गया कि वह सभी सरकारी स्कूलों के प्रशासन से छात्रों को छाछ उपलब्ध कराने को कहे। यह अधिसूचना 25 अप्रैल तक स्कूल चालू रखने के सरकार के फैसले का परिणाम थी। हालांकि, उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि महाराष्ट्र में इस साल इतनी जल्दी भीषण गर्मी पड़ने लगेगी।

दुर्भाग्य से इस निर्देश ने स्कूल प्रबंधनों को नाराज कर दिया, जो जानना चाहते थे कि छाछ के लिए धन कहां से आएगा। शिक्षकों और प्रधानाचार्यों के संगठनों ने स्पष्ट रूप से कहा कि ये निर्देश अव्यावहारिक हैं, क्योंकि छाछ के प्रत्येक गिलास की कीमत 10 रु. है और छात्रों की संख्या को देखते हुए स्कूल पर खर्च का बहुत बोझ पड़ेगा।

एक तरफ जहां यह विवाद चल रहा है, वहीं मुझे 2013 में इसी कॉलम में लिखी एक कहानी याद आती है। अमेरिका में कन्सास सिटी के बिली रे हैरिस नामक एक भिखारी ने हीरे और प्लैटिनम की एक इंगेजमेंट रिंग एक महिला को लौटा दी थी। वह अंगूठी महिला ने गलती से उसके कप में गिरा दी थी।

वास्तव में भिखारी पहले ज्वेलर के पास गया था और उसे पता था कि अंगूठी की कीमत 4,000 डॉलर थी। लेकिन उसके दिल ने कहा कि उसे इस अंगूठी को लौटा देना चाहिए। उसकी ईमानदारी से प्रभावित होकर सारा डार्लिंग और उनके पति बिल क्रेजी- जिनकी वह अंगूठी थी- ने धन उगाहने वाली वेबसाइट GiveForward.com पर जाकर एक पेज शुरू किया और 175,000 डॉलर से अधिक एकत्र कर लिए। इन पैसों से न केवल बेघर बिली को घर मिला, बल्कि उसे मिली प्रसिद्धि के कारण उसका बिछड़ा हुआ परिवार भी मिल गया।

फंडा यह है कि जब आप नेक सोच के साथ कुछ देना शुरू करते हैं, तो कई चीजें अपने आप आपके पास आने लगती हैं। यही ईश्वर का रहस्य है। देने वालों के दाता ईश्वर हैं।

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