अबूझमाड़ में नक्सलियों की तलाश में Live ऑपरेशन: कौन हैं नक्सलियों से लड़ रहे DRG जवान, बोले- खतरा है, इसलिए घर तक नहीं जाते h3>
तारीख 8 जून 2025, दिन रविवार, जगह छत्तीसगढ़ का नारायणपुर। दिन के 11 बजे थे। दैनिक NEWS4SOCIALकी टीम नारायणपुर में उस जगह जाने की तैयारी कर रही थी, जहां सिक्योरिटी फोर्स ने 21 मई को एक करोड़ के इनामी नक्सली बसवाराजू को मार गिराया था।
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तभी खबर आई कि नारायणपुर से करीब 40 किमी दूर अबूझमाड़ के जंगलों में संदिग्ध लोग दिखे हैं। अबूझमाड़ के घने जंगल और पहाड़ नक्सलियों का गढ़ माने जाते हैं। बसवाराजू भी इन्हीं जंगलों में छिपा था।
हम उस वक्त डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड यानी DRG के कैंप में थे। नक्सलियों के खिलाफ DRG के जवान ही ऑपरेशन चलाते हैं। इस फोर्स में शामिल करीब 40% जवान पहले नक्सली रह चुके हैं और सरेंडर के बाद DRG में भर्ती हो गए। वे जंगल, पहाड़ और गांवों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। इनमें महिलाएं भी हैं, जो हाथ में AK-47 राइफल और शरीर पर बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर ऑपरेशन के लिए तैयार रहती हैं।
ये फोटो नारायणपुर में DRG कैंप का है। नक्सलियों के मूवमेंट की खबर मिलते ही जवानों को बुलाया गया। कुल 150 जवान कैंप के मैदान में तैयारी के साथ पहुंच गए।
ऑपरेशन के लिए जा रहे 150 जवानों को एक सब-इंस्पेक्टर लीड कर रहे थे। हमने DRG के अफसरों से जवानों के साथ जाने की परमिशन मांगी। ऑपरेशन में जाना खतरनाक था, क्योंकि जंगल में नक्सली जगह-जगह लैंडमाइंस बिछा देते हैं। अफसरों ने जवानों के साथ न जाने की सलाह दी।
गुजारिश करने पर वे मान गए, लेकिन शर्त रखी कि हम जवानों के काम में रुकावट नहीं डालेंगे। हमेशा उनके पीछे रहेंगे और एक्शन शुरू होते ही खुद को बचाते हुए लौट आएंगे।
कुछ मिनट की ब्रीफिंग और जंगलों की तरफ बढ़े जवान टीम को लीड कर रहे SI ने नारायणपुर के नक्शे पर जवानों को संदिग्ध लोकेशन बताना शुरू किया। 5 मिनट में ब्रीफिंग खत्म हुई और सभी जवान अपनी-अपनी बाइक पर सवार हो गए। हम भी उनके साथ चल पड़े। शुरुआत में पक्की सड़कें थीं, इसलिए परेशानी नहीं हुई। जंगल शुरू होते ही रास्ता कच्चा हो गया।
ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां, तीखे मोड़ और दोनों तरफ घना जंगल। जवानों ऐसे रास्तों पर बाइक चलाने में माहिर हैं। उनकी नजरें रास्ते पर ही नहीं, जंगल के भीतर भी आने वाली हर आहट पर टिकी थीं।
करीब डेढ़ घंटे बाद जवान एक जगह रुक गए। तय हुआ कि आगे पैदल जाएंगे। सभी ने अपनी बाइक पेड़ों के पीछे छिपा दीं। इसके बाद जंगल में पैदल आगे बढ़ने लगे। थोड़ी भी आहट होती, तो कदम थम जाते। इशारों में पीछे आ रहे साथी को अलर्ट करते। खतरा न होने पर फिर आगे बढ़ जाते।
अबूझमाड़ के घने जंगलों में बाइक जाना भी मुश्किल है। इसलिए जवान पैदल ही सर्च ऑपरेशन करते हैं।
लोकेशन पर पहुंचकर घेराबंदी, 3 घंटे चला सर्च ऑपरेशन संदिग्ध लोकेशन के करीब पहुंचते ही जवानों ने घेराबंदी कर ली। टीम छोटी-छोटी टुकड़ियों में बंट गई। इसके बाद सर्च ऑपरेशन शुरू हुआ। साथ चल रहे जवान ने बताया कि यही सबसे मुश्किल वक्त होता है। कभी भी आपकी तरफ फायर आ सकता है। लैंडमाइंस पर पैर पड़ सकता है।
जवान दबे पांव सावधानी से आगे बढ़ते रहे। जमीन पर बने निशान, पेड़ों पर बने संकेत या किसी भी तरह की असामान्य चीज को देखते ही रुक जाते। तीन घंटे तक जवान उस इलाके का चप्पा-चप्पा छानते रहे। कहीं-कहीं हाल में बुझाई गई आग के निशान मिले, कुछ पैरों के निशान भी दिखे। इससे अंदेशा हो गया कि नक्सली यहां मौजूद थे। DRG के आने से पहले ही चले गए।
थका देने वाले सर्च ऑपरेशन के बाद जवान सुरक्षित जगह देखकर पेड़ों की छांव के नीचे बैठ गए। बैग से खाने का सामान और पानी की बोतलें निकालीं। किसी के टिफिन में रोटी-सब्जी थी, तो किसी के पास सत्तू। सबने मिल-बांटकर खाना खाया, पानी पिया और थकान मिटाने के लिए आराम करने लगे। इस ब्रेक में भी उनकी अलर्टनेस कम नहीं हुई। कुछ जवान पेड़ की ओट लेकर पहरेदारी करते रहे।
DRG के जवान लोकल होते हैं, इसलिए उन्हें जंगल में रहने के तौर-तरीके और नक्सलियों के बारे में अच्छी जानकारी होती है। इसलिए ये फोर्स सबसे कारगर है।
इस दौरान सभी आपस में हंसी-मजाक करते रहे। परिवार की बातें करने लगे। तब भी नजरें और कान जंगल की ओर ही थे। इनमें से कुछ जवान बसवाराजू के एनकाउंटर में भी शामिल थे। बोले- ‘तीन दिन पैदल चलकर वहां तक पहुंचे थे। एनकाउंटर कैसे किया, ये नहीं बता सकते।’
अब जवानों की बात…
‘12-13 साल की उम्र में नक्सलियों ने संगठन में भर्ती किया’ हमने एक DRG जवान से बात की। वे खुद कभी नक्सली कमांडर थे। सुरक्षा कारणों से DRG जवान अपनी पहचान उजागर नहीं करते। हमने जवान का नाम बदलकर हरीश किया है।
हरीश अपने अतीत के बारे में बताते हैं, ‘तब बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सरकार का नहीं, नक्सलियों का राज चलता था। मैं तो बच्चा था। 12-13 साल उम्र रही होगी, जब नक्सलियों ने मुझे बाल संगठन में शामिल कर लिया।’
हमारे गांव में पुलिस या प्रशासन का कोई दखल नहीं था। बच्चे हो या बूढ़े, सभी को संगठन में शामिल होना पड़ता था। वे जैसा सिखाते, हम वैसा ही करते। उस उम्र में सही-गलत की समझ भी नहीं थी।’
‘मुझे बंदूक नहीं दी गई थी। मेरा काम बाजार से राशन-सब्जी लाना था। असली हथियार चलाने की ट्रेनिंग सिर्फ मिलिशिया में शामिल लोगों को मिलती है। आम सदस्यों से सिर्फ छोटे-मोटे काम करवाते थे। कोई भी उनकी बात मानने से इनकार नहीं कर सकता था। जो ऐसा करता, उसकी पिटाई होती थी।’
‘नक्सलियों ने दोस्तों को मार दिया, इसलिए उनका साथ छोड़ा’ हरीश आगे बताते हैं, ‘कई साल संगठन में बिताने के बाद 2007-08 में मुझे लगने लगा कि मैं गलत रास्ते पर आ गया हूं। ये खोखली लड़ाई लड़ने से अच्छा है कहीं बाहर जाकर मजदूरी कर लूं। संगठन में रहते हुए ही एक लड़की से प्यार हो गया। मैंने बड़े कमांडरों से शादी की परमिशन मांगी। उन्होंने कुछ गांववालों को बुलाया और मेरी शादी करवा दी।’
‘एक दिन कमांडर ने मुखबिरी के शक में दो-तीन लोगों को बेरहमी से मार दिया। वे मेरे बचपन के दोस्त थे। उन्होंने कुछ नहीं किया था। मैंने इसके खिलाफ आवाज उठाई। इसके बाद मैं भी कमांडर की आंखों में खटकने लगा। मुझ पर शक किया जाने लगा। उसी दिन मैंने तय कर लिया कि अब यहां एक पल भी नहीं रहना।’
‘ये 2011 की बात है। मैंने पत्नी से सरेंडर करने के बारे में बात की। पुलिस के एक अधिकारी से मदद मांगी। फिर पत्नी के साथ मैंने सरेंडर कर दिया। पहले हमसे पूछताछ की गई। मुझे इलाके की अच्छी जानकारी थी। कुछ महीने बाद अधिकारियों ने मुझे कहा कि मैं DRG में शामिल हो जाऊं।’
हरीश ने बचपन में नक्सली संगठन जॉइन किया, वहीं शादी की और अब DRG में हैं। उन्हें खुशी है कि अब उनके बच्चे अच्छी जिंदगी जी रहे हैं।
हमने पूछा- नक्सली और DRG जवान की जिंदगी में क्या फर्क है? जवाब मिला, ‘वो जिंदगी बिल्कुल अच्छी नहीं थी। वहां सिर्फ तकलीफें थी। नक्सली सरकार बनाने का नारा देकर हम जैसे नौजवानों को बेवकूफ बनाते हैं। न वहां पैसा है, न कोई भविष्य। बस दूसरों से मांगकर खाना-पीना चलता है।’
‘आज मैं पत्नी और दो बच्चों के साथ अच्छी जिंदगी जी रहा हूं। बेटी 9वीं और बेटा चौथी में पढ़ता है। हम तो पढ़ नहीं पाए, लेकिन मेरी एक ही ख्वाहिश है कि बच्चे खूब पढ़ें। जान का खतरा रहता है, इसलिए मैं अपने गांव नहीं जाता। बस इस बात का सुकून है कि जिस रास्ते पर मैं भटका था, उस पर जाने से दूसरों को बचा रहा हूं।’
‘नक्सली और पुलिस में से एक को चुनना था, मैंने पुलिस चुना’ डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड की टीम में 20-25 महिला सिपाही भी थीं। हमने एक सिपाही सीमा (बदला हुआ नाम) से बात की, जिन्होंने मजबूरी में बंदूक उठाई है। सीमा ने सितंबर 2022 में फोर्स जॉइन की। वे बताती हैं, ‘सच कहूं तो मेरा फोर्स में आने का कोई इरादा नहीं था।’
‘मेरे गांव में स्कूल नहीं है। पहले था, लेकिन नक्सलियों ने तोड़ दिया। मेरे मम्मी-पापा पढ़े-लिखे नहीं हैं। वे चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़ें, इसलिए उन्होंने मुझे नारायणपुर भेज दिया।’
‘घर की स्थिति अच्छी नहीं थी। DRG में भर्ती निकली तो मम्मी-पापा ने ही कहा कि मैं फोर्स जॉइन कर लूं। मेरे सामने दो ही रास्ते थे- या तो गांव में रहकर नक्सलियों के साथ हो जाऊं और पुलिस से लड़ूं या पुलिस में भर्ती होकर नक्सलियों से लड़ूं। मैंने सोचा कि नक्सलियों के साथ रहने से अच्छा है कि मैं कोई अच्छा काम करूं, जिससे शायद मेरे गांव का विकास हो सके। यही सोचकर मैंने बंदूक थामना सही समझा।’
ये सीमा हैं। इनका असली नाम इनके गांववालों को भी नहीं पता। सीमा ने गांव में नहीं बताया कि वे DRG में हैं, ताकि उनका परिवार सुरक्षित रहे।
सीमा बीते डेढ़ साल से हर ऑपरेशन का हिस्सा रही हैं। हमने उनसे पूछा- महिला होने के नाते ये काम कितना मुश्किल है? सीमा जवाब देती हैं, ‘हम कई-कई दिन के लिए जंगल में ऑपरेशन पर जाते हैं। तब बहुत दिक्कत होती है। सबसे बड़ी मुश्किल वॉशरूम की होती है। जंगल में पुरुष जवानों के बीच हमें मैनेज करना पड़ता है।’
‘लगातार 50-60 किलोमीटर पैदल चलने और शरीर के ओवरहीट होने की वजह से पीरियड्स का साइकिल बिगड़ जाता है। महीने में एक बार आने वाला पीरियड दो-दो बार आ जाता है। ऐसी स्थिति में हम वापस आने का सोच भी नहीं सकते। इसलिए हमेशा सैनिटरी पैड साथ लेकर चलते हैं।’
DRG में महिला सिपाही भी ऑपरेशन पर जाती हैं। सीमा के मुताबिक, लंबे चलने वाले ऑपरेशन के दौरान महिला सिपाहियों को बहुत दिक्कतें हो जाती हैं।
सीमा आगे बताती हैं, ‘माना जाता है कि महिलाओं की शारीरिक क्षमता पुरुषों से कम होती है, लेकिन हमें उनके बराबर ही चलना और वजन उठाना पड़ता है। यह बहुत मुश्किल होता है। अगर हम राशन-पानी का वजन लेकर चलते हैं, तो शरीर दर्द से टूटने लगता है। अगर नहीं लेकर चलते तो भूखे रहना पड़ता है। बारिश में तो परेशानी और बढ़ जाती है। गीले कपड़ों में रहना पड़ता है। कीचड़ और पानी में ही सोते हैं।’
घर जाना कब होता है? सीमा बताती हैं, ‘2023 में ट्रेनिंग खत्म हुई थी। उसके बाद से एक दिन के लिए घर नहीं गई। नक्सलियों ने एक बार मेरे पापा को सरकारी लोगों से मेलजोल रखने के आरोप में बहुत पीटा था। इसी डर से वे मुझे घर पर नहीं रुकने देते। कभी-कभी रात में छुपकर 1-2 घंटे के लिए मिलने जाती हूं। भाई तुरंत वापस छोड़ने आ जाता है।’
‘गांव में कोई नहीं जानता कि मैं DRG में हूं। ऑपरेशन के दौरान अपने गांव के पास से गुजरती हूं, तो अच्छा लगता है। उम्मीद जागती है कि जल्द सब ठीक होगा और हम भी अपने घर में सबके साथ रह सकेंगे।’
लीड कर रहे SI बोले- दुश्मन की पोजिशन पता न होना सबसे खतरनाक ऑपरेशन के बाद हमने DRG टीम को लीड कर रहे सब इंस्पेक्टर से बात की।
सवाल: ऑपरेशन से पहले क्या तैयारी होती है? जवाब: तैयारी तो हमारी हमेशा रहती है। असली चुनौती ये इलाका है। हमें इतनी ही खबर मिलती है कि दुश्मन आसपास है। उसकी सटीक लोकेशन पता नहीं होती। हमें उस जगह को खोजना पड़ता है। इससे खतरा बढ़ जाता है, क्योंकि हमें पता नहीं होता कि दुश्मन किस पोजिशन में छिपा है।
सवाल: नक्सलियों की प्राइमरी इन्फॉर्मेशन कहां से मिलती है? जवाब: कभी हेडक्वॉर्टर से खबर आती है। कभी-कभी मुखबिरों के जरिए भी पता चल जाता है।
सवाल: नक्सलियों के खिलाफ अभियान में DRG का क्या रोल है? जवाब: ऐसे ऑपरेशन में DRG के जवान ही सबसे आगे रहते हैं। वे स्थानीय होते हैं और उन्हें इलाके की अच्छी जानकारी होती है। बाकी फोर्स जैसे ITBP, BSF भी हमारे साथ ऑपरेशन में रहते हैं, लेकिन वे हमारे सपोर्ट में रहते हैं। उन्हें इलाके की उतनी जानकारी नहीं होती।
ये सर्च ऑपरेशन को लीड करने वाले अधिकारी हैं। पहचान छिपाना चाहते थे इसलिए इनका चेहरा नहीं दिखाया गया है।
सवाल: ऑपरेशन के दौरान क्या मुश्किलें आती हैं? जवाब: बहुत मुश्किलें हैं। यह पहाड़ी इलाका है, जिसमें गहरी खाइयां हैं। कई बार फिसलकर गिरने से जवान जख्मी हो जाते हैं। कहीं-कहीं जंगल इतना घना है कि पैदल चलना भी मुश्किल हो जाता है। यहां हर मौसम की अलग परेशानी है।
ऑपरेशन के दौरान कोई जवान घायल हो जाए, तो खराब मौसम के कारण कई बार हैलिकॉप्टर वक्त पर नहीं पहुंच पाता। समय पर इलाज न मिलने से कभी-कभी जान भी चली जाती है। अचानक भारी बारिश शुरू हो जाए, तो चलना मुश्किल हो जाता है।
सवाल: लैंडमाइंस कितना बड़ा खतरा हैं? जवाब: बहुत बड़ा खतरा हैं। नक्सलियों को जंगल की बेहतर जानकारी होती है। वे हमारे मूवमेंट का पता चलने पर IED लगा देते हैं। कभी-कभी हमें इसका पता नहीं चल पाता, जिससे नुकसान उठाना पड़ता है।
सवाल: ऑपरेशन के दौरान आम लोगों से कितना सपोर्ट मिलता है? जवाब: अब बहुत बदलाव आया है। हमारा स्थानीय लोगों से जुड़ाव बढ़ा है। एक समय तो हम उन तक पहुंच ही नहीं पाते थे। उनके मन में हमारे लिए अलग धारणाएं थीं। अब हम लगातार उनसे कॉन्टैक्ट में रहते हैं, मिलते-जुलते हैं।
ग्राफिक से जानिए DRG के दो बड़े ऑपरेशन…
नक्सलियों के खिलाफ DRG लीड कर रही ऑपरेशन 21 मई को बसवाराजू के एनकाउंटर में तीन जिलों नारायणपुर, बीजापुर और दंतेवाड़ा की DRG फोर्स शामिल थी। फोर्स की भूमिका पर दंतेवाड़ा रेंज के DIG केएल कश्यप बताते हैं, ‘DRG नक्सल विरोधी अभियानों की रीढ़ बन गई है। इसके जवानों में जंगल के भीतर सर्वाइव करने की क्षमता दूसरी फोर्स के मुकाबले ज्यादा है। उन्हें लगातार स्पेशल ट्रेनिंग दी जा रही है, तकनीक से लैस किया जा रहा है।’
कश्यप कहते हैं, ‘DRG बनाने का मकसद यही था कि ऐसे जवान की फोर्स हो, जो यहां की भौगोलिक परिस्थितियों से वाकिफ हैं। स्थानीय होने की वजह से वे यहां की संस्कृति को समझते हैं।’
‘पहले जो ऑपरेशन होते थे, उसमें गांववाले शिकायत करते थे कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान के नाम पर पुलिस यहां की संस्कृति को बर्बाद कर रही है। महिलाओं के साथ बदसलूकी कर रही है। DRG बनने के बाद ऐसी शिकायतें आना बंद हो गईं। फोर्स में 20-25% महिलाएं हैं। DRG जवानों को मिली कामयाबी के बाद 2022 में बस्तर डिवीजन के सभी जिलों में बस्तर फाइटर्स टीमें बनाई गई हैं।’
DIG के मुताबिक, लोकल होने के कारण जवानों को पता होता है कि उनके गांव में कौन क्या कर रहा है। CPI (माओवादी) के हथियारबंद दस्ते के अलावा बहुत सारे संगठन गांवों में काम कर रहे होते हैं। जवानों को उनकी जानकारी होती है, इसलिए पुलिस के लिए काम करना आसान हुआ है।
अगली स्टोरी में 23 जून को पढ़िए और देखिए सबसे बड़े नक्सली हिड़मा के गांव में रिपोर्ट ………………………………. कैमरामैन: अजित रेडेकर ……………………………….
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